गुरुवार, 31 जुलाई 2025

सृजनात्मकता का सराहनीय प्रयास

                                                                 - अजीत शर्मा ‘आकाश’

  


‘अस्तित्व की पहचान’ पुस्तक में कवयित्री मंजू लता नागेश की 109 काव्य रचनाएं संग्रहीत हैं। इन रचनाओं के वर्ण्य-विषय में विविधता दृष्टिगोचर होती है। जीवन के विविध क्षेत्रों पर लेखनी चलाने का प्रयास किया गया है। अधिकतर रचनाएँ आध्यात्मिक प्रवृत्ति की सम्मिलित की गयी प्रतीत होती हैं। संग्रह में सावन में बदरा झूम झूम बरसो, बसंत ऋतु स्वागत गीत, सावन की फुहार आई, रंग बसंती देख छवि मन रचनाओं में ऋतु वर्णन किया गया है। जय हिंद जय भारत, देश के जांबाज़ों को शत-शत नमन, एकता, हमारे पूर्वज, आगे बढ़ना ऊंचाई पर चढ़ना मं देशप्रेम एवं भारतीय संस्कृति का पोषण व्याप्त है। महिला पर्वों एवं त्यौहारों पर आधारित रचनाएँ भी हैं, यथा-करवाचौथ, नागपंचमी, अक्षय तृतीया, हरितालिका तीज, होली में, राखी की पहचान रहे आदि। कुछ रचनाएँ एक तुम प्रीतम, सावन के दिन प्रिय गुजरे कैसे, बस थोड़ा सा प्यार आदि रचनाएँ श्रृंगार रस की हैं, जिनके अन्तर्गत प्रणय, प्रेम एवं सौन्दर्य का शब्द-चित्रण करने का प्रयास किया गया है।

      पुस्तक के कुछ अश इस प्रकार हैं -‘जला दो ज्ञान की ज्योति’- जला दो ज्ञान की ज्योति अन्तर्मन में सवेरा क्यों नहीं होता/हमारे घर कभी खुशियों का डेरा क्यों नहीं होता। ‘बस थोड़ा सा प्यार’- तुम ही प्रियतम गीत, ग़ज़ल हो, तुम हो सुर संसार/नैना बरसे निर्झर, बस थोड़ा सा इंतज़ार। ‘राखी की पहचान रहे’- त्योहारों का देश अनोखा जो भारत की है पहचान/राखी का त्योहार निराला इसकी एक निराली शान। ‘नारी शक्ति’- बहुत सहा जुर्म, त्याग नारियों का नहीं होगा बलात्कार है, बढ़ेगा मान मिलूगा हक़, अत्याचारों का पतन होगा ये चीत्कार है। ‘पर्यटन’- जीवन की आपाधापी में मन हो परेशान/घूम आए देश विदेश अब न हो परेशान। ‘सावन की फुहार आई’- सावन की बहार आई, तीज का त्यौहार लाई/भीग गए बन बाग, झूले की बहार छाई। 

  प्रस्तुत संग्रह को पढ़ने से ऐसा प्रतीत होता है कि रचनाकार को काव्य व्याकरण के विषय में विशेष जानकारी नहीं है, जिसके कारण पुस्तक में संग्रहीत कविताओं में काव्यानुशासन की कमी, काव्यात्मकता का नितान्त अभाव तथा छन्दहीनता दृष्टिगोचर होती है। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि रचनाकार का यह प्रयास सृजनात्मकता एवं रचनाधर्मिता की दृष्टि से एक सराहनीय प्रयास है, जिसे और धार दी जाने की आवश्यकता है। गुफ़्तगू पब्लिकेशन, प्रयागराज द्वारा प्रकाशित की गयी 128 पृष्ठों की इस पुस्तक का मूल्य 250 रूपये है।


अशोक ‘अंजुम’ की ग़ज़लों का पठनीय संकलन


  

सुप्रसिद्ध साहित्यकार बालस्वरूप राही के सम्पादन एवं संचयन में ‘ग़ज़लकार अशोक ‘अंजुम’शीर्षक से 101 ग़ज़लों का संग्रह प्रकाशित हुआ है। संग्रह के अधिकतर शे’र युगबोध से जुड़े हैं तथा कहीं-कहीं प्रेम एवं श्रृंगार की भावनाओं को भी स्पर्श किया गया है। कथ्य के दृष्टिकोण से ग़ज़लों में वर्तमान समाज का चित्रण, जीवन की अनुभूतियां एवं संवेदनाएं, अपने एवं ज़माने के दुख-दर्द, सामाजिक सरोकार, आम आदमी का संकट, आज के राजनीतिक हालात आदि विषयों को स्पर्श करते हुए मनोभावों को अभिव्यक्ति प्रदान की गयी है। इनके माध्यम से रचनाकार ने सामाजिक, राजनीतिक विसंगतियों को भी उजागर करने का प्रयास किया गया है; साथ ही अपने समाज और बदलते परिवेश के प्रति आम जन की चिंता भी व्यक्त की गयी है।  

   ग़ज़ल रचनाओं में आम बोलचाल की भाषा एवं कहीं-कहीं साहित्यिक भाषा दृष्टिगत होती है, जिसमें अन्य भाषाओं के शब्द जैसे ट्रेन आदि का भी प्रयोग किया गया है। इसके अतिरिक्त दवाई, दीखा, मेंटे जैसे क्षेत्रीय बोलचाल के शब्द भी हैं। वाक्य विन्यास के अन्तर्गत ‘न‘ के स्थान पर ‘ना‘ का प्रयोग उचित नहीं कहा जा सकता। कुल मुहल्ले खलबली, लहर हैं (पृ0-70), हो रहीं क्या-क्या बात (पृ0-116), सौ वारदात (पृ0-119), जैसे प्रयोग व्याकरणिक अशुद्धियों की ओर संकेत करते हैं। कुछ ग़ज़लों में दोस्तो, अजी, कि, अमा, अरे, यारो जैसे भर्ती के शब्द भी आये हैं। इनके अतिरिक्त ग़ज़ल व्याकरण की दृष्टि से रचनाओं में गुहर रख, कर रहा, सैंतालिस से, नज़र रेशमी, मत तू (ऐबे-तनाफ़ुर), उमर, इन्तेज़ार, किसम किसम, बज़ार, रस्ता, मज़्हब (ऐबे-तख़ालुफ-़किसी शब्द के हिज्जों से छेड़छाड़) तथा तक़ाबुले रदीफ जैसे दोषों का समावेश भी परिलक्षित होता है। पुस्तक में संग्रहीत ग़ज़लें सामान्य स्तर की कही जा सकती हैं। कुछ रचनाओं में सपाटबयानी भी प्रतीत होती है। पुस्तक में संकलित कुछ ग़ज़लों के अश्आर इस प्रकार हैं-“तू सिखाता है नेकियों का सबक़ दुनिया को/तेरे ही नाम पे बहता है लहू क्यों मौला।.....वफ़ाएँ लड़खड़ाती हैं भरोसा टूट जाता है/ज़रा-सी भूल से रिश्तों का धागा टूट जाता है।.....दुनिया को नई राह दिखाने के वास्ते/सूली पे चढ़े कौन ज़माने के वास्ते।.....मज़हब के सौदागर ने/मेंटे भाईचारे सब।.....निकली है आज छूने लो आसमान चिड़िया/भर लेगी मुट्ठियों में सारा जहान चिड़िया।..... खाना-पीना, हँसी-ठिठोली सारा कारोबार अलग/जाने क्या-क्या कर देती है आँगन की दीवार अलग।.....कुर्सियों का गणित बिठाते हैं/ये वतन को सँवारने वाले।.....दो-दो पैग लगा लें चल/तुझ पर कितने पैसे हैं।.....चाँद का अक्सर छत पर आना कितना अच्छा लगता है/तुमसे घंटों तक बतियाना कितना अच्छा लगता है।     

कुल मिलाकर पुस्तक ग़ज़लकार अशोक ‘अंजुम’ को पठनीय कहा जा सकता है। 172 पृष्ठों की इस पुस्तक को सागर प्रकाशन, शाहदरा, दिल्ली ने प्रकाशित किया है, जिसका मूल्य 300 रूपये है।


(गुफ़्तगू के जनवरी-मार्च 2025 अंक में प्रकाशित)


शनिवार, 12 जुलाई 2025

 वर्ष 1900 से निकलनी शुरू हुई ‘सरस्वती’ पत्रिका

‘बाल-सखा’ और साप्ताहिक ‘देशदूत’ भी इंडियन प्रेस से ही निकले

महावीर द्विवेदी और सोहन द्विवेदी जैसे लोगों ने किया संपादन

 

                                                                    - डॉ. इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी

   भारतीय मीडिया हाउस के इतिहास में इंडियन प्रेस ने जो मुकाम हासिल किया है, उसके नज़दीक तक भी पहुंचना किसी अन्य संस्थान के लिए बहुत कठिन है। इस हाउस ने प्रकाशन के क्षेत्र में जो मानक और इतिहास स्थापित किया है, उसकी मिसाल सदियों तक दी जाती रहेगी। इस संस्थान से बच्चों की मासिक पत्रिका ‘बालसखा’ और साप्ताहिक समाचार-पत्र ‘देशदूत’ साहित्य की पत्रिका ‘सरस्वती’ समेत कई अन्य पत्रिकाएं प्रकाशित र्हुईं। लेकिन ‘सरस्वती’ पत्रिका ने देश की साहित्यिक पत्रिकारिता के इतिहास में मील का पत्थर स्थापित किया है। उन दिनों  इस पत्रिका में कोई एक छोटी सी रचना का प्रकाशन मात्र हो जाने से रचनाकार देशभर में चर्चित और स्थापित हो जाता था। तबं इंडियन प्रेस के अलावां ‘मित्र प्रकाशन’ और ‘पत्रिका हाउस’ ने इलाहाबाद को ख़ास मकाम हासिल करा दिया था। तब यह शहर प्रकाशन के क्षेत्र में देश का अव्वल स्थान था।

इंडियन प्रेस की गेट पर लगे नेम प्लेट को देखते डॉ. इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी।

 इंडियन प्रेस की स्थापना वर्ष 1884 में बाबू चिंतामणि घोष ने इलाहाबाद में की थी। शुरूआत में सिर्फ़ मुद्रण का काम किया। उन दिनों स्कूलों में पढ़ाई जाने वाली पुस्तकों के प्रकाशन और उसके लिए प्रयोग किया जाने वाला कागज़ बहुत ही घटिया स्तर का होता था,। बाबू चिंतामणि की पहली प्राथमिकता यह थी कि स्कूलों की पुस्तकों का प्रकाशन स्तरीय हो, पुस्तकों के लिए प्रयोग होने वाला कागज बेहतरीन हो जाए। इसी सोच के तहत इन्होंने काम शुरू किया। कुछ ही दिनों में इन्हें अपने कार्य में सफलता मिली। सरकार ने भी इस प्रकाशन संस्थान के कार्य को सराहा। इसी के साथ इंडियन प्रेस देश का सर्वश्रेष्ठ प्रकाशन बन गया।


हिन्दी साहित्य सम्मेलन की लाइब्रेरी में ‘सरस्वती’ और ‘बाल सखा’ की फाइलों का अध्ययन करते दुर्गानंद शर्मा, डॉ. इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी और धीरेंद्र सिंह नागा।

 इसके बाद बाबू चिंतामणि घोष ने साहित्य को समर्पित पत्रिका ‘सरस्वती’ निकालने की योजना बनाई। उन्होंने इसके लिए वाराणसी की नागरी प्रचारिणी सभा के समक्ष इस पत्रिका को निकालने का प्रस्ताव रखा। सभा ने प्रकाशन की बात स्वीकारते हुए इसमें सहयोग की बात कही, लेकिन इसकी जिम्मेदारी इंडियन प्रेस पर ही छोड़ दी। योजना बननी शुरू हुई तो सबसे पहले संपादक तय करने की बात सामने आयी। इसके संपादक मंडल में बाबू कार्त्तिक प्रसाद खत्री, रामकृष्ण दास, किशोरी लाल गोस्वामी, जगन्नाथ दास रत्नाकर और बाबू श्याम सुंदर दास शामिल किए गए। मासिक और सचित्र पत्रिका निकालने की योजना बनी। जनवरी 1900 में सरस्वती पत्रिका का पहला अंक प्रकाशित हुआ। पहले अंक का संपादकीय था- ‘परम कारुणिक सर्वशक्तिमान जगदीश्वर की अशेष अनुकंपा से ही ऐसा अनुपम असवर प्राप्त हुआ है कि आज हमलोग हिन्दी भाषा के रसिकजनों की सेवा में नये उत्साह से उत्साहित हो एक नीवन उपहार लेकर उपस्थित हुए हैं, जिसका नाम ‘सरस्वती’ है। भरत मुनि के इस महावाक्यानुसार कि ‘सरस्वती’ श्रुति महती न हीयताम अर्थात् सरस्वती ऐसी महती श्रुति है कि जिसका कभी नाश नहीं होता, यह निश्चय प्रतीत होता है कि यदि हिन्दी के सच्चे सहायक और उससे सच्ची सहानुभूति रखने वाले सह्दय हितैषियों ने इसे समुचित आदर और अनुरागपूर्वक ग्रहण कर यथोचित आश्रय दिया तो अवश्यमेव यह दीर्घ जीवनी होकर निज-कर्तव्य पालन सेे हिन्दी की समुज्ज्वल कीर्ति को अचल और दिगंतव्यापिनी तथा स्थायी करने में समर्थ होगी।’ पहले ही अंक में संपादक मंडल ने यह भी लिखा कि यदि ‘सरस्वती’ से आर्थिक लाभ होता है तो- ‘इससे केवल यही सोचा गया है कि सुलेखकों की लेखनी स्फुरित हो जिससे हिन्दी की अंगपुष्टि और उन्नति हो, इसके अतिरिक्त हम लोगों का यह भी दृढ़ विचार है कि यदि इस पत्रिका संबंधीय सब प्रकार का व्यय देकर कुछ भी लाभ हुआ तो इसके लेखकों की हमलोग उचित सेवा करने में किसी प्रकार की त्रुटि न करेंगे। आशा है कि हिन्दी पठित समाज इस पत्रिका पर कृपादृष्टि बनाये रहेंगे और हमलोगों को निज कर्त्तव्य-पालन में यथाशक्ति पूर्ण सहायता देंगे।’

इंडियन प्रेस में अरिन्दम घोष से बातचीत करते डॉ. इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी। 

 वर्ष 1900 के जनवरी से दिसंबर तक प्रकाशित हुई सरस्वती पत्रिका में कुल 56 रचनाएं प्रकाशित हुईं। इनमें किशोरी लाल गोस्वामी की आधुनिक हिन्दी की पहली कहानी ‘इंदुमति’ छपी। यह कहानी शेक्सपीयर के नाटक ‘टेम्पेस्ट’ का भावानुवाद है। इसके साथ ही वैज्ञानिक कहानियों के छपने की शुरूआत हंुइ। इस एक वर्ष में ब्रजभाषा और खड़ीबोली की कविताएं भी खूब छपीं। मगर, इसी एक वर्ष में संपादक मंडल के लोगों में आपसी विवाद भी हो गया। जिसकी वजह से जनवरी 1901 से बाबू श्यामसुंदर दास इसके अकेले संपादक हो गए। दो वर्षों तक संपादन करने के बाद बाबू श्यामसुंदर दास ने आर्थिक तंगी और समयाभाव की वजह से इसका संपादन कार्य छोड़ दिया। वर्ष 1903 में महावीर प्रसाद द्विवेदी ने इसका संपादन कार्य शुरू किया। महावीर प्रसाद द्विवेदी इससे पहले रेल विभाग में डिस्ट्रिक्ट ट्रैफिक सुपरिटेंडेंट के ऑफिस में कार्यरत थे। बाबू चिंतामणि घोष सरस्वती के साथ ही उर्दू में भी एक पत्रिका निकालना चाहते थे। इसके लिए उन्होंने प्रेमचंद को बुलाकर उनसे बात की। प्रेमचंद ने कहा कि नौकरी छोड़कर पत्रिका का संपादन करने की जो ग़लती महावीर प्रसाद द्विवेदी नेे की है, वह ग़लती मैैंं नहीं करूंगा। हां, पत्रिका का नाम मै ‘फिरदौस’ रख देता हूं और किसी अन्य क़ाबिल इंसान को इसके संपादन की जिम्मेदारी दे देता हूें। प्रेमचंद की इस बात पर बाबू चिंतामणि घोष सहमत नहीं हुए।

 दूसरी तरफ, द्विवदी जी के सपांदक बनते ही बहुत से लेखकों ने सरस्वती से अपना संबंध तोड़ लिया। नागरी प्रचारिणी सभा ने भी अपना अनुमोदन वापस ले लिया, क्योंकि द्विवेदी जी ने एक खोजी रिपोर्ट प्रकाशित की, जिसमें उन्होंने प्रचारिणी सभा की कड़ी आलोचना की थी। उन्होंने सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ की कविता ‘जूही की कली’ को छापने से इंकार करते हुए उसे वापस कर दिया था। 1907 तक द्विवेदी जी ने खड़ी बोली को ब्रजभाषा से पूरी तरह मुक्त कर दिया। महावीर प्रसाद द्विवेदी ने इसके साथ ही ‘कालिदास की निरंकुशता’और भाषा व्याकरण में ‘अनस्थिरता’ को लेकर हिन्दी जगत में एक तूफान खड़ा कर दिया। कवियों में मैथिलीशरण गुप्त, रामचरित उपाध्याय, रामचंद्र शुक्ल, राय देवी प्रसाद पूर्ण, नाथूराम शंकर शर्मा, लोचन प्रसाद पांडेय और ठाकुर गोपाल शरण सिंह के साथ ही कहानी लेखकों रामचंद्र शुक्ल, वृन्दावनलाल वर्मा,  प्रेमचन्द, चन्द्रधर शर्मा गुुलेरी, विश्वंभर नाथ शर्मा कौशिक, ज्वालादत्त शर्मा आदि को सरस्वती पत्रिका में छापकर हिन्दी साहित्य में एक तरह से स्थापित कर दिया।

बाल सखा’ के पहले अंक का कवर पेज।

जुलाई, 1920 में द्विवेदी जी ने पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी को अपना सहायक बना लियां। उनको छह महीने तक संपादन का प्रशिक्षण दिया। इसके बाद बख्शी जी को सरस्वती का प्रधान संपादक बना दिया। वर्ष 1925 में बख्शी जी सरस्वती के संपादन का कार्य छोड़कर अपने गृह नगर खैरागढ़ चले गये, तब देवीदत्त शुक्ल को इसकी जिम्मेदारी सौंप दी गई। अप्रैल 1927 में बख्शी जी ने फिर वापस आकर संपादन कार्य शुरू कर दिया। लेकिन, कुछ दिनों के बाद खैरागढ़ के स्कूल में उनको नौकरी मिल गई, और वे चले गए। फिर देवीदत्त शुक्ल को प्रधान संपादक बना दिया गया। देवीदत्त शुक्ल के साथ ही 1934 से ठाकुर श्रीनाथ सिंह को  सरस्वती का संपादक बनाया गया। 1939 से  उमेश चंद्र देव मिश्र को संयुक्त संपादक बनाया गया। 1946 में देवीदत्त शुक्ल के आंख की रोशनी चली गई। संपादन की जिम्मेदारी उमेश चंद्र देव मिश्र को सौंप दी गई, लेकिन 9 जून 1951 को इनका देहांत हो गया। नवंबर 1951 में फिर से बख्शी जी सरस्वती के संपादक बना दिए गए। जून 1955 तक इन्होंनेे संपादन का कार्य किया, इसके बाद फिर से अपने गृहनगर चले गए। जुलाई 1955 से दिसंबर 1975 तक सरस्वती पत्रिका का संपादन पं. श्रीनारायण चतुर्वेेदी ने किया। सरस्वती पत्रिका जनवरी-मार्च 1976 में संयुक्तांक के रूप में निशीथ कुमार राय केे संपादन में पुनःजीवित हुई और दिसंबर 1980 तक किसी तरह निकलती रही। मई, 1982 तक किसी तरह प्रकाशित होती रही, इसके बाद बंद हो गई।

 इंडियन प्रेस से ही वर्ष 1917 से बच्चों की पत्रिका ‘बाल-सखा’ निकलनी शुरू हुइै। इंडियन प्रेस में ही कार्यरत बदरीनाथ भट्ट को इसका संपादक बनाया गया।। कुछ ही समय बाद बदरीनाथ लखनऊ यूनिवर्सिटी में अध्यापक हो गए। इसके बाद बाल-सखा के संपादन की जिम्मेदारी देवीदत्त शुक्ल को दी गई। वर्ष 1927 से अगस्त 1942 तक बाल-सखा का संपादन श्रीनाथ सिंह ने किया। इसके बाद 1956 तक इस पत्रिका के संपादक लल्ली प्रसाद पांडेय रहे। वर्ष 1957 में इस पत्रिका के संपादक सोहन लाल द्विवेदी हो गए। वर्ष 1968 में पुनः लल्ली प्रसाद पांडेय इसके संपादक हो गए। मगर, लगातार घाटे में चलने के कारण इसी वर्ष के अंत में बाल-सखा पत्रिका बंद हो गई।

सरस्वती पत्रिका के वर्ष 1900 के फरवरी अंक के अंदर का पहला पेज।

 वर्ष 1938 में इसी संस्थान से ‘देशदूत’ नामक साप्ताहिक पत्र निकलना शुरू हुआ। तत्कालीन संचालक हरिकेेशव घोष ने इसकी शुरूआत कराई। राजनीति, वाणिज्य, उद्योग, कृषि, शिक्षा, आदि विषयों पर इसमें सामग्री प्रकाशित होती रही। 12 वर्षों तक इसका प्रकाशन हुआ। 

(गुफ़्तगू के जनवरी-मार्च 2025 अंक में प्रकाशित)





रविवार, 6 जुलाई 2025

आज का तंत्र कह रहा है कि आप अपने काम से काम रखिए: राजेंद्र गुप्त

राजेंद्र गुप्ता से बातचीत करते अशोक श्रीवास्तव कुमुद

फिल्म, टीवी और नाटकों में संजीदा और सजीव अभिनय के लिए मशहूर, पानीपत पंजाब के एक व्यवसायी परिवार में जन्मे राजेन्द्र गुप्त ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा पानीपत और स्नातक की उपाधि कुरूक्षेत्र विष्वविद्यालय से प्राप्त करने के पश्चात एन. एस. डी. दिल्ली से निर्देशन में स्नातकोत्तर किया। फिल्म, टीवी और नाटकों में अभिनय एवं निर्देशन के अतिरिक्त हिन्दी कविता-कहानियां के पाठ के सैकड़ों वीडियो ‘राजेंद्र गुप्त वाच’ नामक यूट्यूब चैनेल पर मौजूद हैं। सबसे ज्यादा टीवी सीरियल में अभिनय करने हेतु लिम्का बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड में आपका नाम दर्ज है। आस्कर पुरस्कार के लिए नामांकित, लगान फिल्म में गांव के मुखिया की चर्चित भूमिका निभाने के साथ-साथ, तनु वेड्स मनु में (राजेंद्र त्रिवेदी के रूप में), पान सिंह तोमर  (खेल प्रशिक्षक के रूप में), पीएम नरेंद्र मोदी (दामोदरदास मोदी के रूप में), सूर्यवंशी (नईम खान के रूप में) टीवी सीरियल इंतज़ार (स्टेशन मास्टर के रूप में), चंद्रकांता (पंडित जगरनाथ/शनि के रूप में), शक्तिमान (डॉ. विश्वास के रूप में) और साया (जगत नारायण के रूप में) सहित बहुत सारे नाटकों जैसे अंधायुग, जीना इसी का नाम है। पटकथा, जिन्ना आदि में अविस्मरणीय अभिनय के साथ-साथ कई नाटकों का निर्देशन भी किया है। राजेंद्र गुप्ता के मुंबई, कान्दीवली स्थित आवास पर अशोक श्रीवास्तव ‘कुमुद’ ने उसने मुलाकात करके विस्तृत बातचीत की है। प्रस्तुत है इस बातचीत के प्रमुख अंश-

सवाल:एक व्यवसायी पारिवारिक माहौल में, रहते हुए भी आप अभिनय और थिएटर की तरफ कैसे मुड़ गए ?

जवाब: जहां जाना होता है, डेस्टिनी अपने आप ही आपको ले जाती है। थोड़ी हमारी कोशिश भी थी। नाटक के सिवा हमें किसी और चीज में मजा नहीं आता था। जब स्कूल-कालेज में हम नाटक  करते थे तो उसमें मुझे मजा आता था, पढ़ाई में मन बिल्कुल नही लगता था। नाटकों के प्रति जबरदस्त आकर्षण ही मुझे खींचकर, अभिनय की दुनिया में ले आया।

सवाल: आपने एन एस डी में निर्देशन का कोर्स किया है, मगर आपने अभिनेता के रूप में काम किया है ? 

जवाब: एन एस डी ने तो एक्चुअली मुझे डायरेक्टर ही बनाना चाहा था। हर एक स्टूडेंट्स की काबलियत और एप्टीच्यूड देखकर, वो लोग तय करते थे, कि कहां कौन ज्यादा सूट करता है। कौन, किस ब्रांच में जाएगा। मैं हिंदी बेल्ट से आया था तो मेरी भाषा उच्चारण वगैरह स्वाभाविक रूप में ठीक-ठाक था। नाटक और थिएटर के अंदर वो पहली चीज होती है। वही देखकर शायद उन लोगों ने मुझे एक्टिंग में भेज दिया था कि अच्छा, ये तो अच्छी आवाज के साथ-साथ बढ़िया जुबान वाला है। शुरुआती दो साल की पढ़ाई मैंने एक्टिंग में ही की थी लेकिन मैंने तीसरे साल में आप्टआऊट किया था कि नहीं मुझे एक्टिंग में आगे कंटीन्यू नहीं करना है। मुझे डायरेक्शन में जाना है। दरअसल मुझे लगने लगा था कि मैं एक्टिंग सीख नहीं पा रहा हूं। जो मैं अंदर से चाहता हूं, वो एक्टिंग कर नहीं पा रहा हूं। आज तो शब्द दे सकता हूं उस समय मेरे पास शब्द भी नहीं थे कि मैं कह सकूं कि मैं एक्टर बनना चाहता हूं। उस समय मेरे पास अभिव्यक्ति नहीं थी। अपने अंदर के इमोशन, जो मैं महसूस कर रहा था, उसे कर नहीं पा रहा था। उसे शब्दों में तठस्थ होकर पूरी तन्मयता से आत्मसात करके मैं डायरेक्टर के सामने स्टेज पर फोरप्ले नहीं कर पाता था। अतरू एक्टिंग छोड़कर, मैं डायरेक्शन में चला गया। एन एस डी में शायद यह अकेला केस था जहां मैंने दो साल की जगह, चार साल लगाया। पहले दो साल एक्टिंग में फिर दो साल डायरेक्शन में लगाया और फाइनली मेरा डिप्लोमा डायरेक्शन में ही हुआ। 

सवाल:  आपका साहित्य के प्रति झुकाव और कविता-कहानी के पाठ का विचार कैसे बन गया ? 

जवाब: यह सब सहज रूप से अपने आप ही होता गया। मुझे लगता है कि आपका मन, अपने आप उस तरफ होता है, जिस तरफ आपका रुझान होता है। एनएसडी, दिल्ली में पढ़ने के दौरान, नाटकों से जुड़ाव का भी, इस पर पाजिटिव कंट्रीब्यूशन हुआ। एनएसडी में होने वाले, अंग्रेजी या दूसरी अन्य भाषाओं के ज्यादातर नाटक भी, हिन्दी या हिन्दुस्तानी में ही होते हैं और वो सब के सब लिट्रेचर बेस्ड होते हैं। ये उसकी एक खासियत है। हमारी ट्रेनिंग वहां हुई  तो उस बहाने से अच्छे-अच्छे नाटकों को पढ़ने का मौका मिला। जिसमें कहानी के साथ-साथ प्लाट, विभिन्न करेक्टर,  उतार-चढ़ाव और क्लाइमेक्स भी प्रभावशाली होता था। हल्के फुल्के ढंग से नहीं बल्कि उस प्रासेस के अंदर सीरियस सब्जेक्ट के साथ हमारी शुरुआत हुई और फिर जब मैं डायरेक्टर के तौर पर काम करने लगा तो धीरे धीरे सब्जेक्ट को और ज्यादा समझने की चाह की वजह से उसमें डूब जाता था। ज्यादातर चीजें जब भी मुझे पढ़ने को मिली, पसंद वही आईं, जिसमें एक्चुएली कुछ तथ्य था। सारे एलिमेंट्स हो चाहे व्यंग्य हो परसाई का या कुछ भी हो मगर कुछ ऐसा हो जो आंखे खोलता हो और जो समाज को रिफलेक्ट करता हो। उसी दौरान सन् 1973 में ही धूमिल जी की लिखी ष्संसद से संसद तकष् किताबश् पढ़ने को मिली। ‘पटकथा’ उसकी आखिरी कविता है। ये जो सीरियस थिएटर  या सीरियस लिट्रेचर बेस्ड थिएटर होता है वो करते करते, ज्यादातर मुझे सीरियस चीजें ही ज्यादा पसंद आने लगी। सीरियस चीजों में ही एक उदाहरण है कि शायद 1973 या 74 में ‘अंधायुग‘ नामक एक नाटक डायरेक्ट करने के लिए मुझे कला परिषद ने बुलवाया था। अंधायुग बहुत जबरदस्त ड्रामा है। उसके अंदर जबरदस्त कविता के साथ-साथ इमोशंस भी है। उसके अंदर बहुत स्ट्रांग तरीके से, क्या नहीं है ? इस तरह की जब आपकी सीरियस शुरुआत हुई हो और उस तरफ से जब आप आएंगे तो आप अच्छे साहित्य से ही जुड़ेंगे। 

 फिर धीरे धीरे खाली समय में आज से छब्बीस सत्ताइस साल पहले मेरे घर पर चौपाल नाम की साहित्यिक गोष्ठी शुरू हुई। हर महीने, किसी दिन पचास-सौ लोग, मेरे घर इकट्ठे होकर, कहानियां-कविताएं पढ़ते थे, छोटे-छोटे नाटक भी करते थे। अक्सर मेरे दोस्त मुझसे कहते थे आप कविता पढ़िए, कोई कहानी पढ़िए। कभी कभी मैं भी पढ़ देता था। उस तरह से और ज्यादा लोगों को लगने लगा कि ये कविताएं क्या खूब पढ़ता है। इस तरह से धीरे-धीरे क्रिएट हो गया कि मैं बड़ा साहित्य अनुरागी एक्टर हूँ। 

सवाल: कहा जाता है कि कलाकार जन्मजात होता है उसको निखारा तो जा सकता है लेकिन किसी इंस्टीट्यूट में बनाया नहीं जा सकता। आप इस बारे में क्या महसूस करते हैं ?

जवाब: दरअसल डायरेक्शन करते-करते ही, मुझे एक्टिंग के फंडे क्लीयर हुए थे। इस एक्टिंग सिखाने के दौरान ही मैं भी एक्टिंग सीख पाया। अब मैं कन्विंस हूं कि जिस तरह से एक्टिंग सीखने का कोई फ्लैट कोर्स बना दिया जाता है उस तरह से एक्टिंग नहीं सिखाई जा सकती है। एक्टिंग बहुत व्यक्तिगत मामला है। वो क्लास नहीं है, जैसे म्यूजिक है, जैसे डांस है। ये गुरु-शिष्य परंपरा का एक इंडीविजुअल पूरा खेल है, तपस्या है। पता नहीं एक्टिंग को इस तरह से कितना देखा गया है कितना नहीं। मैंने महसूस किया कि यह भी बहुत सेंसिटिव, बारीक और बहुत तपस्या वाला फील्ड है। हम हर किसी को एक्टिंग सिखा नही सकते। उसके अंदर से एक्टर को निकालना होता है। इसका कोई एक निश्चित तरीका भी नहीं है। मैं किसी को अपना तरीका सिखा सका हूँ लेकिन वो बनावटी होगा। हमें गाइडलाइन देनी होती है कि सामने वाला अपने अंदर के एक्टर को बाहर निकाले। 

जया बच्चन के साथ राजेंद्र गुप्ता

सवाल: फिल्म टीवी या थिएटर जगत में आप किस अभिनेता या निर्देशक से सबसे ज्यादा प्रभावित हुए हैं।

जवाब: वर्तमान में अभिनेता नसीरूद्दीन शाह का मैं बहुत मुरीद हूं। थियेटर में उनको बहुत बड़ा और अच्छा एक्टर मानता हूं। उनके जैसी एक्टिंग की डायमेंशन्स बहुत कम लोगों में है। जितना एक्टिंग में वो बारीक काम करते हैं, मुझे याद नहीं पड़ता, किसी और का उतना बारीक काम मैने देखा हो। अभिनय जगत में एक से एक कमाल के एक्टर बहुत प्रभावशाली हैं। मगर जो बारीकी नसीरूद्दीन शाह के काम में है, हर रोल को एकदम अलग तरह से, पूरे परफेक्शन के साथ निभाते हैं। फिल्मों में और भी बहुत से कमाल के एक्टर हैं। सबसे पहले आप दिलीप साहब को देखिए, क्या काम करते थे। हमारे जैसी जनरेशन जो इस लाइन में आई है, उनके यही रोल मॉडल थे। पुराने जमाने में दिलीप साहब, मोतीलाल साहब, बलराज साहनी साहब, बहुत गजब के एक्टर थे।

सवाल: पुरानी फिल्मों में अधिकतर दर्शक फिल्म के दुखभरे दृश्यों से प्रभावित हो, सुबकने लगते थे।  क्या वजह है कि अब दुख भरे दृश्यों में, किसी के दुख को देखकर, दर्शकों के आंखों से आँसू नही निकलते ?

जवाब: आजकल अगर किसी के आंख से एक सेकेंड के लिए, आंसू निकलेगा भी तो साथ का आदमी कहेगा, चल यार ये तो रोज कई बार होता है। किस-किस के लिए रोएगा। आज का आदमी सिर्फ़ अपने-आप में केंद्रित होकर जीता है। आज का तंत्र कह रहा है कि आप अपने काम से काम रखिए। व्यर्थ में किसी पर ध्यान मत दीजिए। अगर आप किसी की मुसीबत में रुक कर उस की मदद करने लगोगे तो आप खुद दूसरी मुसीबत में फंस जाओगे। पूरा तंत्र, इंसान को रोकने या दूसरों की मदद न करने के लिए ही प्रेरित करता नज़र आता है। आप किस-किस को दोष दीजिएगा।


सवाल:  आज के दर्शको में इंसानियत से जुड़ी भावुकता, नहीं दिखाई देने का क्या कारण है ?

जवाब: समाज और देश के हालात जैसे हैं, आज का आदमी उसी का ही तो प्रोडक्ट हैं। वो अपने चारों तरफ चालाकी, स्वार्थ, गलाकाट प्रतियोगिता देख रहे हैं। खुद के जिंदा रहने के अनुभव में, पचास तरह के अनुभवों से वो गुजरता है। हो सकता है उसका दोस्त ही उसकी छाती पर पांव रखकर आगे बढ़ गया हो, तो वो हवा में कैसे मासूम रह जाएगा। जाने अनजाने पता नहीं कितने अच्छे-बुरे अनुभव, आपके व्यक्तित्व को कांससली-अनकांशसली प्रभावित करते रहते हैं। आपका व्यक्तित्व आखिरी दम तक बनता बिगड़ता रहता है। ऐसे माहौल में भावुकता का खत्म होना स्वाभाविक है। 

सवाल: अभी आपकी टीम ने सुदामा पांडेय धूमिल की प्रसिद्ध कविता ‘पटकथा’ का मंचन किया। इस मंचन को आप एक प्रयोग कहेंगे या कुछ और ?

जवाब: हम इसे प्रयोग कह सकते हैं। एक कोशिश है जो हमने किया। दर्शकों के रिस्पांस भी काफी एनकरेजिंग हैं। हम इसके शोज और भी कर रहे हैं। 

सवाल :  किसी कविता का बिना नाट्य रूपांतर किए, मंचन करना क्या संभव है? ‘पटकथा’ के मंचन को आप किस तरह से देखते हैं ?

जवाब: मैंने ‘पटकथा’ कविता का नाप्य रूपांतर किया ही नहीं है। अगर आप धूमिल को पढ़ेंगे तो आप पाएंगे कि धूमिल तो खुद इतने ड्रामेटिक हैं कि उनकी रचनाओं में ड्रामा खोजने की जरूरत ही नहीं है। ‘पटकथा’ के एक-एक शब्द-भाव इतने कमाल के, इतने ड्रामेटिक और आज भी प्रासंगिक हैं कि मैंने कहा इस कविता का मुझे अवश्य मंचन करना है। भाव और शब्द जो उनके हैं, उसे मैं अभिव्यक्त करने की कोशिश कर रहा हूं। भाव भी उन शब्दो से ही आ रहा है। मैं तो अपनी भरसक कोशिश और भरसक ईमानदारी से, उसे ज्यों का त्यों, अपने दर्शकों से बांटने की कोशिश कर रहा हूं। मैं तो एज एन एक्टर, उस कविता को सीधे दर्शकों तक पहुंचा रहा हूं। मेरे ख्याल से, धूमिल को गये हुए, आज लगभग 45 साल हो रहे हैं। सन् 81 में उनकी डेथ हो जाने के बावजूद धूमिल आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं। सिवा एक दो संदर्भों, को छोड़कर यह लगता ही नहीं कि आप कब की बात कर रहे हो। वर्तमान पालिटकल और सोशल परिस्थितियों में पूरे देश के हालात, बिल्कुल वैसे के वैसे ही हैं। मैंने ये कविता शायद सन् 73 या 74 के आस-पास पहली बार पढ़ी थी तब से मैं इससे बहुत प्रभावित था लेकिन स्टेज पर अकेले सोलो एक्टिंग करने की, इससे पहले कभी भी मुझे  हिम्मत नहीं हुई। 

राजेंद्र गुप्ता मुंबई स्थित अवास पर अशोक श्रीवास्तक ‘कुमुद’, कुमुद श्रीवास्तव और राजेंद्र गुप्ता।

सवाल: सर आप कहते हैं कि आप साहित्य के विकास या साहित्य से नहीं जुड़े हैं। लेकिन साहित्य का विकास व प्रचार ऐसी रचनाओं के प्रेजेंटेशन से बहुत तेजी से होता है। जो लोग धूमिल की इस कविता का मंचन देखते हैं वो अन्य कविताओं से भी जुड़ते हैं।

जवाब: पिछले तीन चार साल से मैंने अपना एक यूट्यूब चैनेल ‘राजेंद्र गुप्ता वाच’ नाम से बनाया है। उसमें ज्यादातर यही है। मैं कविताओं और कहानियों का पाठ करता हूं और एक तरह से एज एन एक्टर, वो मेरा भी रियाज है। इस बहाने मैं उन चीजों को सामने लाता हूँ  जो मुझे पसंद है और सिनेमा और नाटकों में नहीं आ पा रहा है, जो करेंट समाज, उसका जो दुख-दर्द झरोखा, जो नहीं दिखाया जाता, न उन पर कोई हिम्मत करता है, न किसी को लेना देना है। बेसिकली यह इंटरटेनमेंट वर्ड है। यहाँ लोग पैसा कमाने के लिए आते हैं। इस तरह का काम सिनेमा में बहुत थोड़ा होता है। कुछ लोग अपना पैसा खर्च करके, छोटी छोटी फिल्में बनाते हैं। किसी जमाने में लोग, सरकारी संस्थाओं के पैसे को मोबलाइज करके भी  फिल्में बनाते थे। ज्यादातर लोग यह महंगा काम नहीं कर पाते  हैं। मैं इन चीजों को नाटक के माध्यम से करता हूं। 

सवाल: आजकल की जो फिल्में आ रही हैं, उसमें टेक्नालाजी का बहुत प्रयोग हो रहा है, फिल्में बहुत भव्य और विशाल स्तर पर बन रहीं हैं। इस नज़र से, थिएटर में टेक्नालाजी के प्रयोग पर आपका क्या विचार है?

जवाब: थिएटर को टेक्नालाजी की बहुत जरूरत नहीं है। यूं तो आप हर चीज का इस्तेमाल कर सकते हैं और उससे एडिशन ही होगा, उससे फायदा ही होगा लेकिन थिएटर को इसकी क्या जरूरत है। इसमें इतना ब्लैक एंड व्हाईट नहीं, कोई फार्मूला नहीं है। सवाल यह है कि स्टेज या थिएटर बेसिकली लाइव है। वहां एक्टर सबसे बड़ी मशीन है। सिनेमा में जितना एक्टर महत्वपूर्ण हैं उतनी ही टेकनीक महत्वपूर्ण है। ये अलग बात है कि हिंदूस्तान का सिनेमा एक्टर ओरियंटेड है और यहां का थिएटर डायरेक्टर ओरिएंटेड हो गया है। जबकि एक्चुएली अपनी बेसिक जरूरतों के अंतर्गत नाटक जो है वो अभिनेता का है और सिनेमा टेक्नीक का है। सिनेमा कहां से आया रंगमंच से आया। रंगमंच में जो हम कर रहे हैं, सिनेमा ने उसको रिकार्ड कर लिया। थिएटर में बिना टेक्नीक के भी काम चल सकता है, मगर जो लोग पैसे का जुगाड़ कर लेते हैं एक-एक दो-दोकरोड़ तक का प्रोडक्शन भी थिएटर में करते हैं। 

आशुतोष राणा के साथ राजेंद्र गुप्ता

सवाल: आपने लगान, तनु वेड्स मनु, सदाबहार जैसी बहुत सी फिल्में और शक्तिमान, चिड़ियाघर और चंद्रकांता जैसे टीवी सीरियल के अलावा बहुत से नाटकों जैसे चाणक्यशास्त्र, कन्यादान आदि में भी काम किया है। आप किस रोल से अपने आपको सबसे ज्यादा संतुष्ट मानते हैं ? 

जवाब: सब के सब रोल में कुछ कमियों के साथ-साथ कुछ मजेदार किस्से भी होते हैं। आप एक अमूर्त चीज को मूर्त कर रहे हैं। एक कहानी और किरदार को आप जिंदा कर, एक्चुअल घटित होते दिखा रहे हो। आडियंस को लगना चाहिए कि मैं रियल देख रहा हूं तभी वो उससे प्रभावित होते हैं। इसलिए वो दृश्य अपने-आप में इतना कंविंसिंग होना चाहिए कि आडियंस को वो रियल लगे। दर्शक को कंविंस करने के लिए, उसको रियल बनाने की कोई लिमिट ही नहीं है। आप कोशिश पर कोशिश करते रहिए। उसके सुख-दुख, गुस्से को, रोने-हँसने को, उसकी हर चीज को उसके साथ आत्मसात करिए। रचनात्मक काम तो अंतहीन होता है। वो कोई आखिरी खुशी नहीं होती। कोई मंजिल अंतिम नहीं होती। 

सवाल :   वर्तमान तथा निकट भविष्य में आपकी आने वाली फिल्में टीवी सीरियल या नाटक कौन कौन हैं ?  

जवाब: वर्तमान समय में, हमारा एक नाटक ‘जीना इसी का नाम है’ दो साल से चल रहा है। दूसरा नाटक ‘पटकथा’ अभी-अभी शुरू हुआ है। अभी हम एक और नाटक का रिहर्स कर रहे हैं जो जिन्ना के ऊपर है। यह जिन्ना की पर्सनल लाईफ पर आधारित बहुत ड्रमैटिक नाटक है। इसमें तीन करेक्टर हैं; जिन्ना, जिन्ना की बहन और जिन्ना की बेटी। इसमें, इन तीनों के बीच में ही पूरी कंफ्लिक्ट, पूरी डेढ़ घंटे की डिबेट है। हिंदूस्तान की तात्कालिक पालिटिक्स, इस्लाम और हिंदूस्तान को लेकर, इनके अपने-अपने विचार, से इसे सँजोया गया है। इस पारिवारिक डिस्कसन से पता चलता है कि जिन्ना ऐसा क्यों है और क्यों उसने पाकिस्तान बनाया। नाटक के अनुसार, शायद इसके पीछे पर्सनल रीजन ज्यादा है। इसके अलावा मेरी एक ओटीटी वेबसीरिज नेट फ्लेक्स पर ‘ब्लैक वारंट’ 10 जनवरी को रिलीज हुई थी। फिल्म अभिनेता राज कुमार राव  के साथ भी, मेरी एक फिल्म ‘मालिक’ बहुत जल्द आने वाली है।                              

(गुफ़्तगू के जनवरी-मार्च 2025 अंक में प्रकाशित)






मंगलवार, 1 जुलाई 2025

गुफ़्तगू के जनवरी-मार्च 2025 अंक में



3. संपादकीय - समाज से कटता जा रहा है साहित्यकार

4-7. मीडिया हाउस: वर्ष 1900 से निकलनी शुरू हुई सरस्वती पत्रिका-डॉ.इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी

8-9.रूबाई को नहीं मिली ख़ास अहमियत- डॉ. अमीर हमज़ा

10-12. दास्तान-ए-अदीब: प्रेमचंद के कहने पर हिन्दी में लिखने लगे उपेंद्रनाथ अश्क-डॉ.इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी

13-20. इंटरव्यू: आज का तंत्र कह रहा है कि आप अपने काम से काम रखिए - राजेंद्र गुप्ता

21-27.ग़ज़लें  मुनव्वर राना, उदय प्रताप सिंह, पवन कुमार, मनीष शुक्ल, डॉ. राहिब मैत्रेय, तलब जौनपुरी, बसंत कुमार शर्मा, खुरशीद खैराड़ी, रईस सिद्दीक़ी बहराइची, अनिल मानव, सोमनाथ शुक्ल, सूफ़िया ज़ैदी, शशिभूषण मिश्र ‘गुंजन’,  प्रकाश नीरव

28-39. कविताएं यश मालवीय, डॉ. प्रमिला वर्मा, पुष्पिता अवस्थी, डॉ.एम.डी. सिंह, डॉ. मधुबाला सिन्हा, डॉ. इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी, डॉ. शबाना रफ़ीक़, उवर्शी उपाध्याय ‘प्रेरणा’, जयप्रकाश श्रीवास्तव, केदारनाथ सविता, डॉ. अनुराधा प्रियदर्शिनी, डॉ. पूर्णिमा पांडेय, जहांआरा ‘अर्शि’, केशव प्रकाश सक्सेना

40-41. लधुकथा: ईर्ष्या -पूनम कश्यप

42-45. चौपाल: अब साहित्यकार सत्ता के नज़दीक आने के लिए बेचैन है ?

46-47. तब्सेरा: अस्तित्व की पहचान, ग़ज़लकार अशोक अंजुम

48-49. उर्दू अदब: मरकज़े-नूर

50. ग़ाज़ीपुर के वीर: मोहम्मद इस्माइल ख़ान

51-56. अदबी ख़बरें

57-87. परिशिष्ट-1: डॉ. लक्ष्मी नारायण बुनकर

57. डॉ. लक्ष्मी नारायण बुनकर का परिचय

58-60.अपनी ओर आकर्षित करतीं कविताएं -डॉ. आदित्य कुमार गुप्ता

61-62.दिल छू लेने वाली कविताएं- अरविंद असर

63-64.कविताओं में शब्दों के सुंदर सामंजस्य- सोमनाथ शुक्ल

65-87. डॉ. लक्ष्मी नारायण बुनकर की कविताएं


88-117. परिशिष्ट-2 रचना सक्सेना

88. रचना सक्सेना का परिचय

89. मानवतावादी गीतकार रचना सक्सेना - डॉ. शहनाज़ ज़ाफ़र बासमेह

90-91.संवेदनाओं की कवयित्री रचना सक्सेना -डॉ. रामावतार सागर

92-94.एक सजग कवयित्री रचना सक्सेना - जगदीश कुमार धुर्वे

95-117. रचना सक्सेना की रचनाएं


118-148. परिशिष्ट-3 डॉ. शैलेष गुप्त ‘वीर’

118-119 डॉ. शैलेष गुप्त ‘वीर’ का परिचय

120-122. कथ्य और शिल्प की कसौटी पर खरे दोहे - रघुविंद्र यादव

123-126. दोहा विधा के प्रखर हस्ताक्षर डॉ. वीर- डॉ. भावना तिवारी

127-148. डॉ. शैलेष गुप्त ‘वीर’ के दोहे