मंगलवार, 24 सितंबर 2013

!!! अमिताभ बच्चन के नाम पत्र !!!!

चित्र गूगल से साभार

आदरणीय अमिताभ जी,
आज मेरे एक मित्र की कृपा से दिल्ली में रिलायन्स मेट्रो  में बैठने का मौका मिला। इस पूरी मेट्रो ट्रेन के बाहर और अंदर गुजरात के बारे में आपके विज्ञापन बने हुए हैं। आप विज्ञापन में कह रहे हैं कि कुछ वक्त तो गुजारिये गुजरात में। अमिताभ जी मैं गुजरात में कुछ वक्त गुजारना चाहता हूं। परंतु नरेन्द्र भाई मोदी मुझे गुजरात में रुकने नहीं देते। मुझे गुजरात से बाहर फेंक देते हैं। आप पूछेंगे कि मेरी गलती क्या है? तो अमिताभ जी मुझसे गलती यह हो गई थी कि मैं गुजरात के साबरकंठा जिले के कुछ आदिवासियों के गांव में गया था और मैंने कुछ आदिवासियों से उनकी भयानक मुश्किलों के बारे में सुनने की गलती कर दी थी। अमिताभ जी आप एक देशभक्त इंसान हैं, इसलिए प्लीज गुजरात के इन आदिवासियों के पास सर्वाधिक प्राचीन सभ्यता के वारिसों के पास जाइए और उनसे उनकी तकलीफें और साथ में मीडिया को भी ले जाइए, मेरा दावा है नरेंद्र भाई आपको भी पुलिस के मार्फत, उसी शाम गुजरात के बाहर जबरदस्ती फिंकवा देंगे। जैसे उन्होंने मुझे फिंकवाया था।
क्या आपको पता है? गुजरात में लाखों आदिवासी किसानों को सरकार द्वारा वन अधिकार के लाभ से वंचित किया गया है? गुजरात में आदिवासियों को वन भूमि के नए पट्टे देने के बजाए उन्हें उनकी पुश्तैनी खेती की जमीनों से भी पीट-पीट कर भगा दिया गया है। मैं इस तरह के अनेकों परिवारों से मिला और मैंने मीडिया को इस घटना के बारे में बताया। अख़बारों में मेरी यात्रा के बारे में एक लेख छाप दिया जिनका शीर्षक था स्वर्णिम नो साचो दर्शन। अर्थात गुजरात सरकार के स्वर्णिम गुजरात का सच्चा दर्शन, बस अगली सुबह पुलिस की तीन जीपें मेरे पीछे लग गयीं। पहले उन्होंने कहा कि मेरी हर मीटिंग में पुलिस मेरे साथ रहेगी, ऐसा उपर से हुकुम है। मैं सहमत हो गया लेकिन रात होते-होते एसपी भी आ गया और अंत में आधी रात में मेरी साइकिल पुलिस ने जीप में लादी और मुझे बरसते पानी में महाराष्ट की सीमा के भीतर ले जाकर फेंक दिया। मैं धन्यवाद देता हूं नरेंद्र भाई मोदी को कि उन्होंने मुझे जान से मरवाया नहीं।
आइए, अमिताभ जी कुछ वक्त असली गुजरात में चलते हैं। आइए अहमदाबाद के मुसलिम शरणार्थियों के शिविर में चलते हैं। यहां आपको कुछ माएं मिलेंगी। जिनकी छातियां का दूध सूख गया है, क्योंकि आंखों के सामने उनके बच्चों को काट कर फेंक दिया गया था और जो आज भी इस भयानक सच्चाई को स्वीकार नहीं कर पा रही हैं। उन लड़कियों से मिलते हैं जिनके पिता मारे जा चुके हैं। उन नौजवानों की जलती आंख में झांक कर देखेंगे, जिनके सामने उनके पूरे परिवार को हमने जय श्री राम के नारे के उद्घोष के साथ जानवरों की तरह काट दिया और जिन्हें इस देश के न्याय तंत्र ने, इस देश की सरकार ने और हमारे समाज ने अपनी स्मृति से हटा दिया है। देखिये, नरेंद्र भाई मोदी की तारीफ ने इस बात में है कि गुजरात में सोमनाथ का मंदिर है ना नरेन्द्र भाई मोदी की वजह से गिर में शेर होते हैं। और ना ही नरेन्द्र भाई मोदी के कारण कच्छ में सफेद रेत में चांदनी खूबसूरत होती है। हां, नरेन्द्र भाई मोदी के रहते हुए गुजरात के आदिवासी गांव में महिला भूख से मर जाये तो इसके लिए वो जिम्मेदार हैं। अगर गुजरात में आदिवासियों का जिन्दा रहने भर भी जमीन खेती करने के लिए ना दी जाये। लेकिन दो लाख एकड़ जमीन आदानी, टाटा, अंबानी को दे दी जाए जिसमें सिर्फ ईटीवी को एक लाख दो हजार एकड़ जमीन दे दी गई, तो इसकी जिम्मेदारी जरूर नरेन्द्र भाई मोदी की है।
अमिताभ जी इस बार आप गुजरात जाएं तो सामाजिक कार्यकर्ताओं से मिलिएगा। अमित जेठवा की मौत और अनेकों कार्यकर्ताओं को माओवादी कह कर जेल में डाल देने के कारण गुजरात में सामाजिक कार्यकर्ता दहशत में हैं। आप भी इस बार कुछ समय बिताईयेगा अहमदाबाद की झोपड़-पट्टी में। शहर चलाने वाले लाखों झोपड़ी वालों को साबरमती के किनारे से उनका घर तोड़कर मरने के लिए शहर से बाहर फेंक दिया गया है। उनके बच्चों ने हाथ जोड़कर प्रार्थना की थी कि प्लीज हमारे घर मती तोडि़ए, पर किसी ने नहीं सुना। तो अमिताभ जी क्या आप तैयार हैं असली गुजरात में कुछ वक्त बिताने के लिए?
(इतिहासबोध बुलेटिन से साभार)
संपादकः प्रो. लाल बहादुर वर्मा

शनिवार, 21 सितंबर 2013

चैपाल: उस्ताद-शार्गिद परंपरा के फायदे-नुकसान क्या हैं ?


‘गुफ्तगू’ के चैपाल कालम में किसी एक विषय पर बड़े साहित्यकारों से बात करके उनकी राय पाठकों के सामने रखी जाती है। जून-2013 और सितंबर-2103 अंक में ‘उस्ताद-शार्गिद परंपरा में क्या फायदे-नुकसान हैं?’ विषय पर चर्चा की गई है। ब्लाग के पाठकों के लिए कालम प्रस्तुत है।
प्रो. सोम ठाकुर: एक ज़माना था जब उस्ताद और शार्गिद की रवायत होती थी। दरबारी शायर होते थे और बाहर भी होते थे जिनके शार्गिद होते थे। उस्ताद-शार्गिद की परंपरा की सबसे बड़ी खूबी यह थी कि शार्गिद का कलाम जब पुख़्ता हो जाता था तभी अवाम तक पहुंचाता था। बहुत मश्क के बाद उस्ताद ग़ज़लों को पढ़ने की अनुमति देते थे। अब यह परंपरा खत्म होती जा रही है जिससे कच्ची रचनाएं श्रोताओं और पाठकों तक पहुंच जा रही है जिससे हमें बचना चाहिए।
निदा फ़ाजली: उस्ताद और शार्गिद की परंपरा में खूबियां ये हैं कि शार्गिद को वाकफि़यत कर देता है। जैसे शब्दों का उच्चारण, सही लफ़्ज़ों की पहचान, मीटर आदि उस्ताद अगर जानकार है तो शार्गिद को यह इल्म देता है। शार्गिद अपने उस्ताद की नकल करने की कोशिश करता है और मौलिकता बहुत ज़रूरी है। अब शायरी बाज़ारी हो गई है, अब अल्फ़ाज का अल्फ़ाज़ों होने लगा है जज़्बात का जज़्बातों हो रहा है। अब झूठ बोलना जुर्म है, चोरी करना जुर्म है मगर ज़बान का गलत होना जुर्म नहीं है। पहले उस्ताद पढ़ते थे तो शार्गिद सुनते थे और सीखते थे, मगर अब यह सब खत्म हो गया है। आज शायर को परफार्मेन्स से जाना जाता है, शायर बहुआयामी हो गया है। अब मुशायरे की परंपरा में शायर वही लिख रहा है जो मंच पर पसंद किया जाए.
डा. मलिकजादा मंज़ूर-तब्दीलियाँ तो आज जि़ंदगी के हर सूबे में आयी हैं मगर उस्ताद और शागिर्द के दरम्यान प्राचीन काल में जो रिश्ते थे वो रफ़्ता-रफ़्ता कम होते जा रहे हैं। आज का शागिर्द क्लासरूम में बैठे अपने गुरु का इंतज़ार करता रहता है मगर गुरु स्टाफक्लब में बैठे अपने दोस्तों के साथ गपशप करता रहता है। मैंने शोध करने वाले छात्रों से अक्सर यह सुना है कि जिसके निर्देशन में वो शोध-कार्य कर रहे हैं, वह उससे व्यक्तिगत व घरेलू कार्य भी कराता रहता है। पुराने ज़माने में गुरु-शिष्य के अमूनन जो रिश्ते थे, उनके तहत शिष्य गुरुकुल में रहकर गुरु से शिक्षा के अतिरिक्त संस्कार भी ग्रहण करता था। तब्दीलियाँ तो अब बहुत हो गयी हैं, उनका इस्तक़बाल भी करना चाहिये मगर ज़रूरत इस बात की है कि हमारे समाज व देश के जो बुनियादी ढाँचे हैं, उनकी अच्छी बातों की क़द्र करनी चाहिये, उन्हें कुबूल करना चाहिये।
मुनव्वर राना: यह उसी प्रकार है कि किसी से पूछना कि लड़का होने की अच्छाइयां और बुराइयां। न केवल अदब कि दुनिया में बल्कि वसीय फलसफे में उस्ताद का मतलब होता है केयर टेकर। अगर सिकंदर को अरस्तू न मिलते तो हमें इतना बड़ा आदमी कैसे मिलता। उस्ताद संगतराश है जो छेनी हथौड़ी से खुद को ज़ख्मी करके भी पत्थर को भगवान बना देता है, अगर संगतराश न होता तो लोग अनगढ़ पत्थर को पूजते और यह और ख़राब बात होती। जिन हाथों में उस्तादों की जूतियों की मिट्टी लगती है वह आम आदमी को भी हुनरमंद बना देता है। अब न ऐसे उस्ताद रह गए हैं और न ऐसे शार्गिद। अगर नुकसान की बात करें तो अब अच्छे शार्गिद होने से पहले लोग उस्ताद होने लगे हैं अब उस्ताद शार्गिद से मेहनत नहीं करवाते साीधे ग़ज़ल ही कर के दे देते है और अब नाम का लालच आ गया है। उस्ताद बनकर लोग कहने लगे हैं कि मेरे पास 40 शार्गिद हैं, 28 मुरीद हैं। शार्गिद बताता फिरता है कि मैं फलां उस्ताद का शार्गिद हूं और अगर उस्ताद का नाम कम है तो शार्गिद उस्ताद का नाम लेने में शरमाता है। शार्गिद कहता है कि ‘नहीं, नहीं मैं खुद कहता हूं उनको तो मैं खुद सिखा दूंगा।’ एक बुजुर्ग होने के नाते मेरा मश्विरा है कि उस्ताद होना बहुत ज़रूरी है। एक आम आदमी भी अगर कहता है आप दाएं से न जाएं ऊपर बदमाश रहते हैं सीधे न जाएं उधर का रास्ता ख़राब है आप बाएं से जाएं तो आप उसकी बात मान लेते हैं और बाएं से जाते हैं तो अगर आप जि़न्दगीभर उस्ताद की बात मानें तो फायदे में रहेंगे।
एस.एम.ए. काज़मी: उस्ताद शार्गिद का संबंध पिता-पुत्र के जैसा पाक रिश्ता है बल्कि अदब की दुनिया में इससे बड़ा पाक रिश्ता कोई और नहीं है, क्योंकि बाप केवल सुविधाएं मुहैया करवा सकता है शिक्षा दिलवा सकता है मगर एक उस्ताद शार्गिद में शउर पैदा करता है। हमें संस्कार अपने उस्ताद से ही मिलते है और मैं खुद आज जो कुछ हूं वह अपने उस्तादों की इज़्ज़त करने के कारण है। अगर गुरू न हो तो हमें संस्कार नहीं मिल सकते और संस्कार ही काम आते हैं।
प्रो. राजेंद्र कुमार: उस्ताद शार्गिद की परंपरा अच्छी है मगर हिन्दी में भी यह परंपरा रही है मगर अब पूरी तरह समाप्त हो चुकी है अब हिन्दी में केवल संपादक लेखक की परंपरा बची है। कुछ अच्छे संपादक लेखकों को सुझाव देते हैं। और अब तो इस्लाह लेना कवि अपमान समझते हैं। उर्दू में यह परंपरा अभी काफी हद तक बची हुई है क्योंकि कुछ विधाओं के प्रति बहुत ध्यान दिया जाता है। उस्ताद-शार्गिदी परंपरा के फायदे यह है कि रचनाओं की मंजाई हो जाती है और उस्ताद का इल्म शार्गिद तक पहुंच जाता है। रचना में शिल्पगत कमियां दूर हो जाती है मगर अब नज़रिया बदल रहा है अब कवि आज़ादी चाहता है कन्टेन्ट को वरीयता देना चाहता है इसलिए छंदमुक्त रचनाओं की शुरूआत हुई और आज़ाद नज़्म की शुरूआत हुई जिसमें शिल्प का विशेष बंधन नहीं होता इसलिए कवि ऐसी रचना में इस्लाह लेना ज़रूरी नहीं समझता। अब कमियों में यह है कि शार्गिद यह सोचता है कि हमारे कन्टेन्ट को दबा तो नहीं दिया जाएगा क्योंकि उस्ताद का ध्यान अधिकतर शार्गिद के शिल्पपक्ष की ओर अधिक रहता है।
माहेश्वर तिवारी: शार्गिद को शब्द प्रयोग, शास्त्रीयता, शेरियत, अनुशासन अपने उस्ताद से मिलती है। किसी बात को कहने का शउर उस्ताद ही सिखाता है। अब समय बदल रहा है सोच और कहन का दायरा बदल रहा है समय के साथ कहन बदलती है उस्ताद रवायती शायरी और शिल्प का माहिर होते हैं। कभी-कभी उस्ताद के साथ बहुत जि़यादा बंध जाने पर शार्गिद को यह नुकसान होता है कि कहन के साथ प्रयोग करना चाहता है मगर उस्ताद की सोच शार्गिद पर हावी हो जाती है। यह शार्गिद को सोचना है कि शिल्प के साथ-साथ अपनी कहन को किस प्रकार साधता है। उस्ताद होना ज़रूरी है मगर शार्गिद सांठ-गांठ दण्डवत प्रणाम वाला नहीं होना चाहिए और शार्गिद को अपने उस्ताद से इस्लाह में बदलाव के कारण जानना चाहिए।
प्रो. अली अहमद फ़ातमी-हमारी भारतीय संस्कृति में गुरु की अत्यंत पवित्र परंपरा रही है। जि़दगी के हर क्षेत्र में उस्ताद का अपना रुतबा होता है और शायरी में भी उस्ताद का एक रुतबा रहा करता था क्योंकि जो शायरी है; उसके लिये भाषा जानना बहुत ज़रूरी है, शायरी का व्याकरण जानना बहुत ज़रूरी है और शायरी के लिये जो तीसरी सबसे बड़ी शर्त है वो यह है कि तबीयत मौजू होनी चाहिये। मैं इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में प्रोफ़ेसर हूँ, पूरी दुनिया में जाना जाता हूँ लेकिन शायरी नहीं कर पाता इसलिये कि तबीयत मौजू नहीं है। शायरी की ऊँच-नीच, ज़बान की ऊँच-नीच, और जो लफ़्ज़ या शब्द होते हैं, वे शब्दकोश में कुछ और होते हैं, रोज़मर्रा के बोलचाल में कुछ और होते हैं, उनका लहज़ा कुछ और होता है। शायरी में सिर्फ़ लफ़्ज़ नहीं बोलता, बल्कि लहज़ा भी बोलता है। ये सारी चीज़ें उस्ताद बताता है। मीर तकी मीर का एक शेर है-‘‘सारे आलम पर हँू मैं छाया हुआ/मुस्तनद है मेरा फ़रमाया हुआ।’’ फ़रमाना आदमी अपने लिये नहीं, बल्कि दूसरों के लिये बोलता है। अपने लिये फ़रमाना व्याकरण की दृष्टि से ग़लत तो नहीं है, किन्तु तहज़ीब की दृष्टि से ग़लत है। लेकिन मीर की ज़बान से यह अच्छा भी लगता है। मीर बड़ा शायर है और उसे यह हक़ भी है। ...........तो यह सारे अल्फ़ाज़, उसके दाँवपेंच और उसका लहज़ा, ये सारी चीज़ें किताबों में नहीं मिलतीं; बल्कि पुरखों से, उस्तादों से मिलती हैं। जब से यह परंपरा ख़त्म हो गयी है, वे बुजुर्ग नहीं रहे, वे महफि़लें नहीं रहीं; तब से शायरी का वो मेयार भी नहीं रहा। ऐसे में उस्ताद के होने, न होने और उसकी कमी का एहसास होता है।
डा. बुद्धिनाथ मिश्र-हम लोगों का साहित्य मूलतः वाचिक परंपरा का रहा है। वाचिक परंपरा में किताबें नहीं चलतीं, लिपियां नहीं होतीं। गुरु शिष्य को ज्ञान देता था, शिष्य अपने शिष्य को, और यह परंपरा पीढ़ी दर पीढ़ी चलती रहती थी। अगर यह परंपरा न होती तो वेद के मंत्र अक्षुण्ण रूप से आज तक नहीं रह पाते। जहां पर लिपियों में काम हुआ, वहां साहित्य अवरुद्ध हो गया। जैसे हड़प्पा सभ्यता की लिपि अभी तक नहीं पढ़ी जा सकी है और वेदों की प्राचीन परंपरा अद्यतन है। गुरु-शिष्य की परंपरा भारतीय शिक्षा पद्धति का मूलाधार है। यह परंपरा हिन्दी एवं उर्दू साहित्य, दोनों में रही है। इधर आकर हिन्दी में यह परंपरा नष्ट हो गयी है, जिसके कारण ज़बरदस्त अराजकता फैल गयी है। अनुशासनहीनता जितनी उर्दू मंचों में व्याप्त है, उससे बहुत अधिक हिन्दी मंचों पर है। इसका मूल कारण यही है कि जो आज पैदा हुआ है, लिखना भी नहीं जानता; वह अपने आप को तुलसीदास से भी बड़ा मानने लगा है। एक शब्द है ‘अदब’। अदब माने ‘साहित्य’ भी होता है, और ‘अनुशासन’ भी। अनुशासन के बिना आप बहुत आगे तक नहीं जा सकते, और इसे क़ायम रखने के लिये गुरु-शिष्य की परंपरा बहुत आवश्यक है।
मेराज फ़ैज़ाबादी-इस संदर्भ में मेरी समस्या यह है कि न मेरा कोई उस्ताद है, न कोई शागिर्द। मेरा अपना सोचना यह है कि कविता सीखी नहीं जा सकती, कोई सिखा नहीं सकता। यह गुण पैदाइशी होता है और अगर आप खुद से शायरी नहीं कर सकते तो शायरी पर अहसान करने की कोई ज़रूरत नहीं है। मैं शुरु से ही उस्ताद-शागिर्द परंपरा में यक़ीन नहीं रखता था। नतीज़ा यह रहा कि न मैंने कभी किसी को उस्ताद बनाया और न किसी से कभी कोई मशविरा लिया। सलाह लेने वालों से भी मैंने हमेशा यही कहा कि खुद से करो, बार-बार पढ़ो और सुधार करो; तो इस परंपरा का क़ायल न होने के कारण इस पर मेरा कुछ बोलना मुनासिब नहीं है। इसके फ़ायदे-नुक़सान भी मैं तभी बता सकता था, जब इससे मैं जुड़ा होता और इसे परखा होता। एक बात ज़रूर समझ में आयी कि उस्ताद-शागिर्द की यह परंपरा शागिर्द को अपाहिज बना देती है। शागिर्द उस्ताद पर निर्भर रहने लगता है कि जहाँ पर या जिस शेर मे खामी होगी, उस्ताद सुधार देंगे; तो मैंने यह बैसाखी नहीं लगायी। यद्यपि यह कठिन रास्ता था और मुझे एक-एक शेर के लिये महीनों मेहनत करनी पड़ी। आज की पीढ़ी लिखने के साथ ही प्रकाशन के लिये लालायित रहती है। मैं बड़े गर्व से कहता था कि हमारी पीढ़ी ग़ज़ल को कोठे से उतारकर घर-आँगन की चारदीवारी में ले आयी लेकिन अब मसला यह है कि आज पत्र-पत्रिकाओं के ग़ैरजिम्मेदार रवैये और फेसबुक ने इसे घर-आँगन की चारदीवारी से निकालकर चैराहे पे खड़ा कर दिया है।
अनवर जलालपुरी-उस्ताद-शागिर्द की परम्परा उतनी ही पुरानी है, जितना कि सभ्यता का इतिहास। यह अत्यन्त स्वाभाविक एवं प्राकृतिक प्रक्रिया है क्योंकि ज्ञान एक दीपक है, चिराग़ है। दीपक से दीपक हमेशा जला है, चिराग़ से चिराग़ हमेशा जला है। किसी के पास ज्ञान था, उसने दूसरे को दिया, दूसरे ने तीसरे को दिया। इस तरह से यह ज्ञानरूपी रोशनी या इल्म का नूर दुनिया में फैलता रहा; तो इस परंपरा से इन्कार नहीं किया जा सकता। अब यह है कि लोग उच्च शिक्षा हासिल करके शायरी करते है तो उसमें उन्हें यह महसूस नहीं होता कि किसी उस्ताद की ज़रूरत है; लेकिन अगर किसी उस्ताद को कलाम दिखाया जाये तो अच्छा से अच्छा शायर उसे उस्ताद मान लेगा क्योंकि कहीं न कहीं हर किसी से चूक होती ही है। एक बहुत ख़ास बात आपको बताऊँ कि शिक्षा का एक नकारात्मक पक्ष भी है कि शिक्षा हासिल करने के बाद, उच्च शिक्षा प्राप्त करने के बाद एक ख़ास प्रकार का अहम् हो जाता है और आदमी के स्वभाव की यह कमज़ोरी भी है कि वह किसी को अपने से बड़ा नहीं मान पाता, टैलेंट और इंटेलीजेंसी में तो बिलकुल भी नहीं; और मानता भी है तो बड़ी मुश्कि़ल से।........मैं नहीं मानता कि उस्ताद-शागिर्द से कोई नुक़सान है। यह परंपरा प्राकृतिक है। बग़ैर किसी को उस्ताद या गुरु माने हमें कोई डिग्री या सनद मिल ही नहीं सकती।
प्रो. बी. एल. आच्छा-उस्ताद-शागिर्द परंपरा आदमी की बेहतरी के लिये ज्ञान के अर्जन और नवागत पीढ़ी को सौंपने की प्रक्रिया है। भारत में यह परंपरा सम्प्रदायों या घरानों में सुरक्षित रही, जिससे उनके साहित्य, दर्शन, परंपरा तथा कर्मकाण्ड आज भी जीवित हैं। यह अलग बात है कि सम्प्रदाय शब्द अब संकीर्ण हो चुका है। उर्दू अदब में उस्ताद-शागिर्द की परंपरा आज भी काफी हद तक क़ायम है, पर हिन्दी में तो अब सभी उस्ताद हैं, शागिर्द तो बस काम-निकालने के लिए रह गये हैं। अच्छे शिष्य वे ही होते हैं जो गुरु को प्रणाम करते हुये उन्हें नये आधारों पर चुनौती देते हैं और गुरु भी अपने शिष्य के तेज से मंडित होकर उसे नये प्रस्थान के लिये आशीर्वाद देते हैं। दाग़ देहलवी इकबाल के उस्ताद थे, जिन्हें उस्ताद-उल-मुल्क कहा जाता था। पर उन्हें लग गया कि इकबाल ऊँची उड़ान भरेगा, तो उसे नयी फ़ज़ा में साँस लेने के लिये छोड़ दिया। कहा जाता है कि अच्छा उस्ताद वही है, जिसका शागिर्द फ़ारिग़ुल इसलाह हो चुका है, अब उसे उस्ताद की ज़रूरत नहीं है। यदि उस्ताद केवल अपने सिखाये ज्ञान तक ही शागिर्द की हदबंदी कर दे और उसके प्रतिभा को न जगा पाये, या शागिर्द की कमियों को ही खँगालता रहे तो उस्ताद-शार्गिद परंपरा दम तोड़ देती है। किंतु यदि गुरु अपने शिष्य में प्रवाहित ज्ञान के साथ उसकी भीतरी लौ को दमका दे तो परम्परा नवोन्मेषी हो जाती है। इससे ‘नया’ आता है और यही ‘नया’ अगली पीढ़ी में भी नये का प्रवर्तन करता है।

शुक्रवार, 13 सितंबर 2013

अकबर की शायरी में आज का समाज बोलता है-प्रो.फ़ातमी

रमेश नाचीज़ के ग़ज़ल संग्रह ‘अनुभव के हवाले से’ का विमोचन
इलाहाबाद। अकबर की शायरी में आज का समाज बोलता है। अकबर ने अपने दौर में समाज में होने वाली बुराइयों को पहले ही पहचान लिया था, वो सारी चीज़ें आज हमारे सामने आ रही हैं। इसलिए उनकी शायरी को आज के दौर में रेखांकित किये जाने की ज़रूरत है, उनकी शायरी को बार-बार याद किये जाने की ज़रूरत है। यह बात मशहूर आलोचक प्रो.अली अहमद फातमी ने कही। 8 सितंबर को महात्मा गांधी अंतरराष्टीय हिन्दी विश्वविद्यालय में साहित्यिक संस्था ‘गुफ्तगू’ के तत्वावधान में ‘अकबर इलाहाबादी स्मृति समारोह’ का आयोजन किया गया। इस दौरान रमेश नाचीज़ के ग़ज़ल संग्रह ‘अनुभव के हवाले से’ का विमोचन किया गया। कार्यक्रम की अध्यक्षता वरिष्ठ शायर एहतराम इस्लाम ने किया। प्रगतिशील लेखक संघ के प्रदेश उपाध्यक्ष मूलचंद्र सोनकर, डा. नफीसा बानो, डा. फखरुल करीम और गुरु प्रसाद मदन विशिष्ट अतिथि के रूप में मौजूद थे। संचालन इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी ने किया। प्रो. फ़ातमी ने अपने वक्तव्य में कहा कि न दलितों की बात की जानी चाहिए बल्कि समाज में सभी पिछड़े और गरीब तबके की बात की जानी चाहिए।
मूलचंद्र सोनकर ने कहा कि रमेश नाचीज़ की यह किताब दलित साहित्य के क्षेत्र में एक योगदान है, इसे गंभीरता पढ़कर इस पर विचार किये जाने की आवश्यकता है। नाचीज ने जगह-जगह अपनी शायरी में दलित चेतना को बेहतरीन ढंग से उकेरा है। डा. फखरुल करीम ने कहा कि अकबर अंग्रेजी तालीम के खिलाफ नहीं थे, बल्कि वे अंग्रेजी तहज़ीब के खि़लाफ थे। उनका मानना था कि हमें अपनी तहजीब को नहीं छोड़ना चाहिए, क्यांेंकि यही हमारी असली पहचान है। वाराणसी से आयीं डा. नफीसा बानो ने कहा कि अकबर ने अपनी शायरी में ज़माने की तस्वीर खींची है और बिगड़ती तहजीब पर करारा प्रहार किया है, इसलिए हम उन्हें समाज सुधारक शायर भी कह सकते हैं। गुरु प्रसाद मदन का कहना था कि रमेश नाचीज ने अपनी शायरी में उन चीज़ों का जिक्र किया है, जिसमें दलितों के भोगे हुए सच का बयान किया गया है। कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे एहतराम इस्लाम ने रमेश नाचीज की पुस्तक और अबकर इलाहाबादी की शायरी को रेखांकित करते हुए कई बात कही। कार्यक्रम के शुरू में रमेश नाचीज़, फरमूद इलाहाबादी और रोहित त्रिपाठी ‘रागेश्वर’ ने अपना कलाम पेश किया। इस मौके पर संजय सागर, अजय कुमार, अनुराग अनुभव, हसनैन मुस्तफाबादी, राजकुमार चोपड़ा, अजामिल,प्रो.सतोष भदौरिया, रविनंदन सिंह, डा. सुरेश चंद्र द्विवेदी, सलाह गाजीपुरी, सुरेश कुमार शेष, नुसरत इलाहाबादी, एन.के. रावत,जयकृष्ण राय तुषार, अजीत शर्मा ‘आकाश’,विनय शर्मा बागी, कविता उपाध्याय, सबा खान, सुषमा सिंह, तलब जौनपुरी,केशव सक्सेना, शैलेंद्र जय, शुभ्रांशु पांडेय, अशोक कुमार स्नेही,देवयानी,सतीश कुमार यादव, शादमा  अमान ज़ैदी, आरपी सोनकर आदि मौजूद रहे।
‘अनुभव के हवाले से का विमोचनः बायें से- प्रो.सतोष भदौरिया, डा. नफ़ीसा बानो,मूलचंद्र सोनकर, एहतराम इस्लाम,प्रो. अली अहमद फ़ातमी,रमेश नाचीज़,फ़ख़रुल करीम,गुरु प्रसाद मदन और इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी
कार्यक्रम का संचालन करते इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी
विचार व्यक्त करते एहतराम इस्लाम
विचार व्यक्त करते प्रो. अली अहमद फ़ातमी
विचार व्यक्त करतीं डा. नफ़ीसा बानो
विचार व्यक्त करते मूलचंद्र सोनकर
विचार व्यक्त करते डा. फख़रुल करीम
विचार व्यक्त करते गुरु प्रसाद मदन
कार्यक्रम के दौरान लिया गया ग्रुप फोटो
कलाम पेश करते फ़रमूद इलाहाबादी
कलाम पेश करते रमेश नाचीज़
कलाम पेश करते रोहित त्रिपाठी ‘रागेश्वर’
कार्यक्रम के दौरान मौजूद साहित्यप्रेमी

शुक्रवार, 6 सितंबर 2013

!!! पुस्तक मित्र ग्रुप से जुड़कर अपनी पुस्तक छपवायें !!!

‘गुफ्तगू’ की तरफ से ‘पुस्तक मित्र योजना’ की शुरूआत की जा रही है। इसके सदस्यों को अपनी पुस्तक छपवाने में बहुत आसानी हो जाएगी। योजना के तहत हर सदस्य को गु्रप की सदस्यता लेनी होगी, सदस्यता शुल्क मात्र 100 है। पहले चरण में कोशिश है कि कम से कम 100 लोगों का एक गु्रप बनाया जाए, और इस गु्रप में जिस भी सदस्य की पुस्तक प्रकाशित होगी, उसे ग्रुप का प्रत्येक सदस्य खरीदेगा, पुस्तक की कीमत 100 रुपये होगी। बिकी हुई पुस्तकों से प्राप्त सौ फीसदी रकम किताब के लेखक को दी जाएगी। एक वर्ष में गु्रप के चार लेखकों की पुस्तकों की प्रकाशित की जाएंगी, आवश्यकता पड़ने पर इसकी संख्या बढ़ाई भी जा सकती है। पुस्तकें साहित्य की सभी विधाओं की होंगी। अगर कोई सदस्य चाहे तो एक वर्ष में प्रकाशित होने वाली चारो किताबों के शुल्क सहित सदस्यता ले सकता है, ऐसी स्थिति में कुल 500 रुपये भेजने होंगे। सदस्यता शुल्क के साथ आप चाहें तो अपनी प्रकाशित होने वाली पुस्तक की ‘पांडुलिपी’ भेज सकते हैं। जिस कवि-लेखक की पुस्तक प्रकाशित करने के लिए स्वीकृत की जाएगी, उसे 5000 रुपये देने होंगे। सदस्यों के खरीदने पर प्राप्त पूरी राशि लेखक को दी जाएगी। पुस्तक के लेखक को एक प्रतियां प्रदान की जाएंगी। यदि आप इस गु्रप के सदस्य बनना चाहते हैं तो निम्नलिखित फार्म को भरकर सदस्या शुल्क की राशि चेक अथवा मनीआर्डर के साथ हमें भेज दे। चेक ‘गुफ्तगू’ के नाम ही बनायें।
नोट- निम्नलिखित फार्म ‘गुफ्तगू’ के सितंबर-2103 अंक में प्रकाशित हो रहा है,। जो लोग इसके गु्रप से जुड़ना चाहें वे इस फार्म को भरकर भेज दें। सदस्यों को गुुफ्तगू भेजी जा रही, जो गुुफ्तगू के सदस्य नहीं हैं, वे यहीं
से इस फार्म को डाउनलोड करके, भरकर भेज दें।


 

बुधवार, 4 सितंबर 2013

गुफ़्तगू के सितंबर-2013 अंक में



3.ख़ास ग़ज़लें: फि़राक़ गोरखपुरी,परवीन शाकिर, साक़ी फ़ारूक़ी, दुष्यंत कुमार
4.संपादकीय: गलत चीज़ों का विरोध ज़रूरी
ग़ज़लें
6.बेकल उत्साही,निदा फ़ाज़ली, वसीम बरेलवी, बशीर बद्र
7.मुज़फ्फर हनफ़ी,मुनव्वर राना, बुद्धिसेन शर्मा, इब्राहीम अश्क
8.एहतराम इस्लाम, देवमणि पांडेय,डा. श्यमानंद सरस्वती,सागर होशियारपुरी
9.सरवर लखनवी,कैलाश निगम,लक्ष्मी विमल,ओम प्रकाश यती
10.अजय अज्ञात,अब्दुल रज़्ज़ाक़‘नचीज़’,आर्य हरीश कोशलपुरी,वाहिद काशीवासी
11.रमेश नाचीज़,अनुपिन्द्र सिंह ‘अनूप’,वारिस पट्टवी,अजीत शर्मा ‘आकाश’
12.कमलेश द्वेदी, अजय कुमार
41.मेराज फ़ैज़ाबादी की चार ग़ज़लें
कविताएं
13.फ़ैज़ अहमद फ़ैज़,कैलाश गौतम,
14.गिरीश त्यागी,नंदल हितैषी,रणजीत राणा
15.स्नेहा पांडेय,आकांक्षा यादव
16.अंकिता साहू, विवकेकांत श्रीवास्तव,राजीव कुमार श्रीवास्तव
17-19.खि़राज़-ए-अक़ीदत: ख़्वाजा जावेद अख़्तर- यश मालवीय
20-21.तआरुफ़: शादमा अमान ज़ैदी
22-26.इक़बाल की शायरी में हुब्बुलवतनी- डा.सैयद मुहीउद्दीन क़ादरी
27-28.इंटरव्यू: प्रो. अब्दुल बिसमिल्लाह
29-31.चैपालः उस्ताद-शार्गिद परंपरा के फ़ायदे नुकसान
32-36.यश मालवीय के सौ दोहे
37-40.तब्सेरा: तौसीफ़-ए-हक़,दरीचे, उन्मेष
42-48.अदबी ख़बरें
49-51.कहानी: हम तुमसे मुहब्बत कर बैठे- अंसारी एम. ज़ाकिर
52-53.इन दिनों : बंद हो गई उर्दू की पत्रिकाएं-इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी
परिशिष्टः राजेश कुमार
54.राजेश कुमार का परिचय
55.कवि,पिता और प्रेमी-निदा फ़ाज़ली
56-57.साहित्यकोश में चमकते सप्त तारे हैं राजेश के दोहे-शिवाशंकर पांडेय
58-61.राजेश कुमार के दोहों पर चंद बातें-शाहनवाज़ आलम
62-64.पायल की मलाम-नंदल हितैषी
65-67.सूक्ष्म मनःस्थितियों के चित्रकार राजेश कुमार-रविनंदन सिंह
68-82.राजेश कुमार के दोहे
84.गुफ्तगू के उपलब्ध अंक

मंगलवार, 3 सितंबर 2013

किसी कानून से नहीं डरते बाबा लोग


इम्तियाज़ अहमद गाज़ी 
एक नाबालिग से यौन शोषण के आरोप में पकड़े गए आसाराम बापू फिर से कुकर्म के लिए चर्चा में आ गए हैं। इससे पहले भी इन पर कई तरह के आरोप लगते रहे हैं, लेकिन सख़्त कानूनी कार्रवाई अब तक नहीं हो पाई है। यही वजह है कि आसाराम ने अपने कुकर्मों और अनैतिक-गैर कानूनी कार्यों से खुद को रोकने के लिए शायद सोचा तक नहीं। देश की कानून व्यवस्था जो राजनैतिक इच्छा पर ही निर्भर करती है। किसी भी बड़े बाबा या राजनीतिज्ञ पर कार्रवाई तभी करती है जब उस प्रदेश या देश की सरकार ऐसा चाहे और सरकार चलाने वाले लोग इस तरह का निर्णय सही या गलत के आधार पर न लेकर अपने राजनैतिक हितों और वोट बैंक को ध्यान में रखकर ही करते हैं। आसाराम और इनके तरह के अन्य बाबा इसी का लाभ उठाते हैं। बाबाओं को अच्छी तरह से पता है कि उनके भक्तों की प्रतिक्रियायें ऐसा माहौल बना देंगी, जिसके आगे सरकार और पुलिस घुटने टेक देगी और वे आसानी से बच निकलेंगे। यह बात स्पष्ट रूप से उस दिन और साफ हो गई, जिस दिन आसाराम ने हिन्दू जन जागरण मंच के कार्यकर्ताओं से बात करते हुए कहा कि मुझे गिरफ्तार करने की हिम्मत पुलिस में नहीं है, मेरे भक्त ऐसा कभी नहीं होने देंगे। अपने इस वक्तव्य से पहले तक लगातार 12 दिनों से आसाराम फरार चल रहे थे, पुलिस उन्हें तलाश रही थी। इस तरह की बात क्या कोई आम आदमी कह सकता है। देश का संविधान स्पष्ट करता है कि कानून सभी के लिए एक समान है। लेकिन देश के बड़े राजनीतिज्ञ और आसाराम की तरह बाबा देश के कानून का धता बताने में जरा भी देर नहीं लगाते। यही वजह है कि आज आसाराम की तरह कई बाबाओं पर गैर कानूनी कार्य करने के आरोप हैं, बालात्कार, हत्या और ज़मीन हड़पने जैसे अनेकानेक मामले अदालतों में कई बाबाओं पर चल रहे हैं। कई मिसालें ऐसी भी हैं, जिनमें अदालती आदेश का बावजूद स्थानीय प्रशासन कार्रवाई नहीं करता, क्योंकि सरकार चलाने वाले राजनीतिज्ञ ऐसा नहीं चाहते। 
दिल्ली में दामिनी प्रकरण के बाद बालात्कार जैसे अपराध के लिए नया सख्त कानून बना है। इस कानून के बाद आसाराम पर एक नाबालिग लड़की का यौन शोषणा का मामला सामने आया है। अब तक की कार्यवाही से जो संकेत दिख रहे हैं, उससे इस बात की संभावना काफी बढ़ गई है कि आसाराम इस आरोप से आसानी से मुक्त नहीं हो पाएंगे। जिन धाराओं में मामला दर्ज किया गया, उसके साबित होने पर उन्हें उम्रकैद तक की सजा हो सकती है। दरअसल, होना यह चाहिए कि चाहे राजनीतिज्ञ हो, बाबा हों, या किसी भी धर्म का ऐसा धर्मगुरू जो लोगों की आस्था का फायदा उठाकर गैरकानूनी कार्य करता हो, उसके खिलाफ कानूनी कार्रवाई सख्ती से की जानी चाहिए। ऐसे लोग एक तरह से समाज के लिए माॅडल का काम भी करते हैं, ऐसे में अगर इन पर गंभीर आरोप लगता है तो तत्परता से सख़्त कार्रवाई होनी ज़रूरी है, ताकि आस्था खिलवाड़ का विषय न बने।
बाबाओं की सैद्धांतिक और कागजी बातों की बात की जाए तो इन सबका दावा है कि वे समाज का उद्धार करने के लिए ही अपना जीवन समर्पित करते हैं। लेकिन इनमें से कोई यह बताने को तैयार नहीं है कि उनके पास जो अकूत संपति है, वे उन्हें किन स्रोतों ने किस प्रकार के लोगों ने दी है। बड़े-बड़े दान देने वाल लोगों की कमाई क्या एक नंबर की दौलत है। इस तरह का सवाल किसी भी बाबा से किया जाता है तो तिलमिला जाते हैं।देश के कुछ बाबाओं की संपति और कार्यप्रणाली की विवरण इस प्रकार है-
आसाराम बाबू- आसाराम की संपति इस समय दस हजार करोड़ से भी अधिक की है। दिल्ली में आसाराम के चार मंदिर-आश्रम हैं। सीलमपुर का आश्रम बाबा ने मंदिर पर कब्जा करके बनाया है, करोलबाग वाला बाबा का मंदिर व राजोकरी का आश्रम वनभूमि पर बना है तो नजफगढ़ का मंदिर ग्राम पंचायत की भूमि पर कब्जा करके बनाया गया है। ऋषिकेश का आश्रम किसानों की भूमि पर बना है, ग्वालियर में शिवपुरी रोड पर बना आश्रम गांव की चरनोई भूमि पर है। छिंदवाड़ा में बापू का आश्रम आदिवासियों की जमीन पर कब्जा करके बनाया गया है, मामला अदालत में है। मेघनगर में 108 एकड़ ज़मीन पर बने बापू के आश्रम की भूमि के असली मालिक आदिवासी हैं, अदालत ने भी इसे मान लिया है। रतलाम में 500 एकड़ की भूमि पर आश्रम खड़ा किया है, जिसकी मालकिन उनकी भक्तिन प्रेमा बहन है। गुजरात के पेठमाला में किसानों की जमीन कब्जा करके आश्रम बनाया गया है, जिसकी कीमत लगभग 350 करोड़ रुपये है। वाराणसी में आसाराम के आश्रम की भूमि का मामला अदालत में चल रहा है। चंडीगढ़ में तो उन्होंने इन हदों को भी पार कर दिया। इन्होंने अपने भक्तों को फ्लैट देने के लिए पांच-पांच लाख रुपये जमा करा लिया, इस तरह उन्होंने 500 करोड़ अर्जित कर लिया, लेकिन फ्लैट आज तक नहीं बने। पांच-पांच लाख रुपये देने वाले लोग जब इंतज़ार करके थक गए तो अदालत की शरण में जा पहुंचे हैं। आसाराम के बारे में इंटरनेट पर सबसे अधिक सामग्री उपलब्ध है। जिसमें इनके और इनके भक्तों द्वारा खूब गुणगान किया गया है। ऐसे गुणगानों में तमाम अनैतिक आधारहीन बातों का वर्णन किया गया है। वे अपने गलत कामों पर पर्दा डालने के लिए दावा करते हैं कि उनकी यौन इच्छाओं की पूर्ति करना भगवान की इच्छाओं की पूर्ति करना है। इनका पुत्र नारायण सिंधी पर भी कई बार बालात्कार के आरोप लग चुके हैं, मामले दर्ज हुए हैं। हैरानी की बात तो यह है कि इनकी पुत्री भारती भी अपने पिता की पाश्विक यौन इच्छाओं की पूर्ति के लिए उनकी मदद करती है। इंटरनेट पर उलब्ध सामग्री के अनुसार वह आश्रम में आयी महिलाओं को यह समझाती है कि बापू की किसी भी बात से इंकार किया तो भगवान नाराज हो जाएंगे। उसके अनुसार बापू के साथ बिताए गए पल भगवान संग बिताए गए पल की तरह हैं। जिस नाबालिग लड़की के साथ यौन उत्पीड़न के मामले में बापू पर इस वक्त कानूनी कार्यवाही चल रही है, उसके माता-पिता आसाराम के अंध भक्त थे, उन्हें भगवान की तरह पूजते थे, लेकिन अब उनकी पुत्री के सााथ जब यह घटना हो गई है, उसके बाद से वे आसाराम को फांसी की सजा देने तक की मांग कर रहे हैं।
सत्यसाईं बाबा- इन्होंने अपने आपको भगवान बताया था, और अपनी मृत्यु की तारीख भी बता दी थी। इनके बताने के मुताबिक 96 वर्ष की आयु में इनकी मृत्यु वर्ष 2022 में होनी चाहिए थी, मगर वर्ष 2011 में ही चल बसे। खुद के बारे में की गई इतनी बड़ी भविष्यवाणी गलत होने के बावजूद इनके भक्तों की आंखें नहीं खुलीं। अब तक ज्ञात स्रोतों के मुताबिक सत्यसाईं अपने पीछे 40 हजार करोड़ की संपत्ति छोड़ गए हैं। इस संपत्ति को अर्जित करने में इन्होंने सिर्फ दान का सहारा नहीं लिया है, बल्कि अपने भक्तों को लूटा भी है, उनके साथ धोखाधड़ी भी की है। जिसके खिलाफ मुकदमे भी चले, लेकिन सरकार चलाने वाले लोग इनका पैर छूते हैं, जिसकी वजह से कार्रवाई नहीं हो सकी। ये अपने भक्तों के सामने चमत्कार करते थे। जिसमें हवा में हाथ फैलाकर घडि़यां, सोने के चेन, अंगूठी, रुद्राक्ष आदि ले आते थे। इनकी इस करिश्मे को जादूगर पीसी सरकार ने चैलेंज भी किया था, उसका कहना था बाबा द्वारा चमत्कार का दावा किया जाना गलत है, मैं इसे करके उनके सामने दिखा सकता हूं। पीसी सरकार ने बाबा के सामने ये सब करके दिखाने का दावा किया था, लेकिन बाबा ने उससे मिलने से ही इंकार कर दिया था। सत्यासाईं के समलैंगिग यौनाचार के तमाम मामले सामने आये थे, जिसे सरकार की दबाव में दबा दिया जाता रहा है। यौनाचार का विरोध करने वाले कई लोगों की हत्या अथवा गायब करने का भी आरोप लगते रहे हैं, इन पर। ये आमतौर पर 11 से 15 साल के लड़कों को अपनी हवस का शिकार बनाते थे।
रविशंकर महाराज- ये अपने को श्री श्री रविशंकर कहते हैं, क्योंकि इस देश के एक विश्व विख्यात संगीतज्ञ का नाम है रविशंकर। इस रविशंकर के आगे कहीं इनका नाम दब न जाए इसलिए इन्होंने अपना नाम श्रीश्री रविशंकर रख लिया। इनका दावा है कि इन्होंने चार साल की उम्र से ही भगवत गीता की कथा कहने लगे थे, 17 साल की उम्र में स्नातक कर लिया था और 1982 में सुदर्शन क्रिया सीख लिया है। ये सारी बातें रहस्य के दायरे में आती हैं। श्रीश्री का सालाना आय 450 करोड़ की है। दुनियाभर के 140 देशों में इनके आश्रम हैं। राजाओं की मुकुट पहनते हैं। किसी कार्यक्रम में जब ये प्रवेश करते हैं तो भगवान की तरह अवतरित होते हैं। राजाओं की तरह मुकुट पहनते हैं। ये ज्ञान के साथ मुस्कान की भी शिक्षा देते हैं। अब कोई समझाये कि 78 फीसदी जनता जो 20 रुपये रोज से गुजारा करती है, उनके चेहरों पर मुस्कान कैसे आयेगी, ये आर्ट आॅफ लीविंग की शिक्षा किस तरह ग्रहण करेंगे।
बाबा रामदेव-ये कालेधन के खिलाफ आंदोलन चला रहे हैं। मगर खुद कानून के हिसाब से चलना नहीं चाहते।कनखल में इनके औषधि संस्थानों में औषधियों के रूप में उत्पाद तैयार होते हैं। कानून के अनुसार इन संस्थानों का पंजीयन फैक्टृी एक्ट के तहत होना चाहिए, लेकिन इन्होंने पंजीयन नहीं कराया। इनके संस्थानों में काम करने वाले श्रमिकों की सुरक्षा के लिए श्रम कानूनों का पालन किया जाना चाहिए। उन्हें हाजिरी कार्ड, न्यूनतम वेतन, आठ घंटे का काम व इससे अधिक काम करने का ओवरटाइम दिया जाना चाहिए।नियमित किये जाने चाहिए और भविष्य निधि काटी जानी चाहिए। लेकिन बाबा इन सब के लिए तैयार नहीं हैं। क्या इन सब कानूनों के परे रहकर धन एकत्र करना काले धन की की श्रेणी में नहीं आता? आखिर बाबा के कालेधन की परिभाषा क्या है? बाबा की कंपनियों में बनी रही दवाओं के लेकर भी विवाद है। उपभोक्ता कानून के तहत हर उपभोक्ता को यह जानने का अधिकार है कि वो जो उत्पाद खरीद रहा है, उसमें क्या-क्या मिला है? दवा अधिनियम के तहत तो हर दवा में उसमें पाये जाने वाले तत्व, उनकी मात्रा,अनुपात और उसके निर्माण की तारीख के साथ ही एक्सपायरी डेट डालना भी ज़रूरी है।बाबा इन नियमों का पालन नहीं कर रहे थे, मामला अदालत में पहुंचा, जिसके बाद कुछ चीजों का पालन करने लगे हैं, लेकिन अभी सभी नियमों को पालन नहीं करते। बाबा की घोषित संपत्ति 1147 करोड़ रुपये की है, हालांकि इन्होंने 45 कंपनियों की संपत्ति को छिपाया है, जिसके निदेशक उनके निकटत सहयोगी बालकृष्ण हैं। एक दशक पहले तक रामदेव साइकिल से गांव-गांव जाकर योग की शिक्षा देते थे, दस साल में इतनी बड़ी संपत्ति आखिर कैसे अर्जित कर ली।पतंजलि योग पीठ किसानों की जमीन हड़प कर बनाया गया है।हाईकोर्ट के आदेश का पालन करने का भी प्रशासन साहस पैदा नहीं कर पा रहा था, बाद में बाबा को जमीन वापस करने की घोषण करनी पड़ी। मध्यप्रदेश की शिवराज चैहान सरकार ने जबलपुर में बाबा को चार सौ एकड़ भूमि देने की घोषणा की है। इस जमीन पर आदिवासी पीढि़यों से खेती कर रहे हैं। इन गरीबों का रोजगार छीनकर बाबा अपना औषधि संस्थान खोलेंगे।बाबाक ी दवाओं के बारे में जो जानकारियां आईं थीं, उसके अनुसार इन दवाओं में मानव हड्डियों और यौन ताकत देने वाली दवाओं में बंदर के शरीर के कुछ अंग डाले जाते हैं। उत्तराखंड में ही कुछ संतों ने बाबा पर आरोप लगाया कि उन्होंने प्रदेश के स्वास्थ्य मंत्री को 25 लाख की रिश्वत देकर जांच रिपोर्ट को प्रभावित किया। 
इस तरह के मामलों का एक दूसरा पहलू यह भी है कि लोग जरूरत से ज्यादा अंधभक्त हो जाते हैं। बाबाओं को भगवान समझने लगते हैं, उनके द्वारा बताये गए एक शब्द-शब्द अक्षरतः भगवान का शब्द समझते हैं। इसी वजह से जहां भारी भरकम राशि उन्हें दान में देने लगते हैं वहीं अपने घर की महिलाओं को उनके लिए अकेले में छोड़ देते हैं। बाबा लोग इसी का फायदा उठाते हुए सारे कुकर्म बिना किसी भय के करते हैं। कानून अपना काम इसलिए नहीं कर पाता कि राजनीतिक इच्छा शक्ति उन्हें हासिल नहीं होती। आसाराम के इस मामले में तो उनके भक्त ऐसे भी दिखाई दे रहे हैं, जो सबकुछ देखते-जानते हुए भी उनका बचाव कर रहे हैं। यहां तक कि पत्रकारों पर हमले किया जा रहे हैं। आखिर हम किस युग-देश में रह रहे हैं कि ऐसी हालात का सामना करना पड़ रहा है। क्या किसी आरोपी पर कानून के हिसाब से कार्यवाही भी नहीं होनी चाहिए। हमें जागना होगा, ऐसे अंधभक्ति- अंधविश्वास के खिलाफ खड़ा होना होगा ताकि ऐसे अपराध करने का मौका किसी बाबा को न मिले।