बुधवार, 26 अक्तूबर 2011

पत्रकारिता फिर से कलेवर व तेवर की तरफ रुख करेगी-श्रीधर


पत्रकारिता अपने मानदंडों से गिरती जा रही है। पीत पत्रकारिता सामान्य बात हो गई है।आधुनिकता और बाजारीकरण ने आदर्श पत्रकारिता को बहुत पीछे छोड़ दिया है। राष्टृीय और अंतरराटृीय घटनाक्रमों पर पैनी नजर रखने वाले इलाहाबाद के वरिष्ठ पत्रकार पंडित श्रीधर द्विवेदी ने ‘गुफ्तगू’ से एक विशेष साक्षात्कार में आज की पत्रकारिता के संदर्भ में उक्त विचार व्यक्त किया। पिछले पांच दशकों से पत्रकारिता से जुड़े श्री द्विवेदी का कहना है कि समाचारपत्र निकालना अब मिशन नहीं रह गया,बल्कि पूरी तरह व्यापार हो गया है। जिसमें संपादक की हैसियत महज एक कठपुतली की रह गई है और मालिकान निजी हितों में उसकी प्रतिभा का शोषण और दोहन करने से बाज नहीं आते। उन्होंने कहा कि अखबार संपादकों के हाथ से निकलकर अब पूरी तरह से प्रबंधतंत्र के हाथ का खिलौना बन चुका है। प्रबंधतंत्र जैसे चाहता है वैसे अखबार को चलाता है। उनका मानना है कि अखबरों की भाषा भी अब बदल गई है। हिन्दी अखबारों में अंग्रेजी की मिलावट से आम आदमी को कठिनाई होती है और इससे भाषा भी प्रदूषित होती है। श्री द्विवेदी का कहना है कि अखबार अब वर्ग विशेष और क्षेत्र विशेष को ध्यान में रखकर प्रकाशित किए जाते हैं, इसमें अखबारों की सार्वभौमिकता पर भी प्रश्नचिन्ह लगता है। अब अखबारों की नौकरी के लिए योग्यता से ज्यादा संपर्कों और बाजार में पकड़ को महत्व दिया जाता है,यही कारण है कि अब अखबारों में प्रायः चाटुकारों की फौज ही दिखाई देती है, जिसके चलते अखबारों का स्तर गिरता चला जा रहा है। पत्रकारिता के भविष्य के संबंध में उनका कहना है कि अच्छे दिन नहीं रहे तो बुरे दिन भी नहीं रहेंगे। एक न एक दिन फिर से बदलाव का दौर शुरू होगा और पत्रकारिता फिर अपने कलेवर व तेवर की तरफ रुख करेगी। समाज को सबसे ज्यादा राजनीति प्रभावित करती है, राजनीति में व्याप्त भ्रष्टाचार भी पत्रकारिता में मानदंडों को गिराने के लिए उत्तरदायी कारक है। श्री को उम्मीद है कि राजनीति में शुचिता एक न एक दिन जरूर आएगी और पत्रकारिता अपने पुराने मानदंडों को फिर से गौरवांवित करेगी। बहुमुखी प्रतिभा के धनी पंडित श्रीधर द्विवेदी का जीवन संघर्षों से भरा रहा है। कांटों के बीच राह बनाने वाले श्री द्विवेदी का जन्म 23 जुलाई 1936 को आजमगढ़ के एक सामान्य परिवार में हुआ था। बचपन में ही अभाव और कठिनाइयों ने उन्हें संघर्षशील बनाया और आगे बढ़ने की प्रेरणा दी। पांचवीं तक गांव में पढ़ाई करने के बाद नेशनल इंटर कालेज आजमगढ़ से इंटर की परींक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की लेकिन आगे की पढ़ाई का मार्ग आर्थिक तंगी के कारण बंद हो गया। छह वर्षों तक कोलकाता में एक प्राइवेट कंपनी में काम किया लेकिन मन नहीं लगा तो वापस लखनउ आ गए। 1959 में लखनउ में आने के बाद त्रिपथगा पत्रिका में बतौर सहायक कार्य मिला तो रोजीरोटी के साथ ही साहित्य सेवा क गाड़ी चल निकली। काम के बाद ट्यूशन और फिर अपनी पढ़ाई। जीवन की यही दिनचर्या बन गई। न साइकिल न रिक्शे के पैसे। ऐसी स्थिति में पांव ही साइकिल बन गए और समय बचाने के लिए दौड़-दौड़ कर ट्यूशन पढ़ाने जाना शगल बन गया। स्नातक किया फिर हिन्दी और इतिहास से परास्नातक की डिग्री हासिल की। पत्रकारिता की नियमित शुरूआत 1965 में तरुण भारत से हुई। 1971 में स्वतंत्र भारत में नौकरी मिली। 1977 में ‘अमृत प्रभात’के प्रकाशन शुरू होने के साथ ही यहां काम शुरू किया, यहीं से 1996 में सेवामुक्त हुए। पत्रकारिता के उच्च मानदंडों को अपने जीवन में उतारने वाले श्री द्विवेदी की देश-विदेश राजनैतिक गतिविधियों पर हमेशा पैनी नजर रहती है। अमृत प्रभात,स्वतंत्र भारत, नार्दन इंडिया पत्रिका, युनाइटेड भारत, सहजसत्ता सहित अनेक दैनिक पाक्षिक और साप्ताहिक सामचार पत्रों में नियमित रूप से श्री द्विवेदी सम सामयिक घटना पर लिखे गए लेख तत्कालीन दृश्य के आइना होते हैं। देशांतर के रूप् में उनके लेखों की एक लंगी श्रंखला इतिहाल की धरोहर है। तथागत शिखावन महाकाव्य जीवन के विविध पक्षों पर एक हजार गीतों को संग्रह ‘भावना’, पांच लघु व्यंग्य नाटिकाओं का संग्रह ‘साक्षात्कार’ संपूर्ण नाटक समाजवाद व महार दीवारी और हिन्दी के अलावा घुंघरू के बोले, राही, समस्या,बानी पुत्र और दशरथ इनकी उत्कृष्ट रचनाओं में शामिल हैं।
विजय शंकर पांडेय

मोबाइल नंबरः 9305771175

सोमवार, 24 अक्तूबर 2011

भगवान और महानायक की संज्ञा क्यों ?







पिछले लगभग एक दशक से महानायक और भगवान शब्द के वास्तविक अर्थ से खिलवाड़ किया जा रहा है। सचिन तेंदुल्कर को भगवान और अमिताभ बच्चन को महानायक की संज्ञा दी जा रही है। जबकि ये दोनों ही उपाधियां किसी भी दृष्टि से सहीं नहीं है। भगवान वह होता है जिसके अंदर ईश्वरी शक्ति हो और देश का महानायक उसे कहा जा सकता है जिसने बिना किसी लोभ-धन के देश की सेवा की हो। अब परिदृश्य में देखा जाए तो, न तो सचिन तेंदुल्कर भगवान हो सकते हैं और न नहीं अमिताभ बच्चन महानायक।इसमें कोई शक नहीं है कि भारत मुनियों-फकीरों का देश है। यहां राम,कृष्ण और गौतम ने जन्म लिया है और परविश पाई है। देश और समाज के लिए कार्य करने वालों का आदर किया जाता रहा है। महात्मा गंाधी जैसे अहिंसावादी नेता की पूरी दुनिया कायल है, सारी दुनिया में अहिंसा के प्रतिमूर्ति के रूप में उन्हें जाना जाता है। गांधी के अलावा भारत को अंग्रेजों से आजाद कराने के लिए हजारों लोगों ने बिना किसी निजी स्वार्थ के अपनी जान की कुर्बानी दी है। सरदार भगत सिंह, सुभाष चंद्र बोस, अशफाकउल्ला जैसे तमाम लोग इसकी जीती जागती मिसाल हैं। इन सबके बीच यदि अमिताभ बच्चन को देश के महानायक की उपाधि दी जा रही है, तो यह किस तर्क पर आधारित है। जहां तक अमिताभ बच्चन के शख्सियत का सवाल है तो इसमें कोई शक नहीं है कि वे भारतीय फिल्म इंडस्टृी के सबसे कामयाब सितारे हैं, उन्होंने बालीवुड को नई दिशा दी है। बड़े-बड़े फिल्म निमार्ता-निदेशक उनके साथ काम करके खुद को गौरवान्वित महसूस करते हैं। लेकिन इसके साथ-साथ यह भी सच है कि वे फिल्मों में काम खुद के धन और ख्याति अर्जित करने के लिए करते हैं। टीवी चैनलों के कार्यक्रमों में आते हैं, तरह-तरह की चीजों की एड और माकेर्टिंग करते हैं, जिसके बदले संबंधित कंपनियों से करोड़ों रुपए लेते हैं। और यह धन खुद के लिए अर्जित करते हैं। इससे देश और समाज को कोई खास फायदा नहीं होता। अब ऐसे में सवाल उठता है कि जो आदमी एक-एक क्लिप का लाखों रुपए वसूलता हो, दंत मंजन से लेकर ठंडा तेल जैसे प्रोडक्ट का प्रचार करता हो, वह बहुत बड़ा कलाकार तो हो सकता है, लेकिन देश का महानायक कैसे हो सकता है। आखिर किस आधार पर उन्हें देश के महानायक की संज्ञा दी जा रही है।इसी तरह सचिन तेंदुल्कर को भगवान की संज्ञा दी जा रही है। सचिन की क्रिकेट की प्रतिभा से किसी को इंकार नहीं हो सकता है। उन्होंने समय-समय पर अतुलनीय बल्लेबाजी की है, ढेर सारे रिकार्ड उनके नाम दर्ज हो चुके हैं और आने वाले दिनों में उसमें इजाफा ही होने वाला है।बड़े-बड़े दिग्गज गेंदबाजों को उन्होंने धूल चटाया है। व्यक्तिग रिकार्ड के हिसाब से निःसदेह वे दुनिया के सबसे बड़े क्रिकेट बल्लेबाज हैं। अनगिनत बार उनके प्रदर्शन से भारत को जीत हासिल हुई है। इन सबके बीच हमें यह भी देखना चाहिए कि वे जितने बड़े खिलाड़ी हैं, भारत की क्रिकेट टीम दुनिया के अन्य टीमों के मुकाबले उतनी बड़ी नहीं है, उतनी कामयाबी और रिकार्ड भारतीय क्रिकेट टीम के नाम पर दर्ज नहीं हैं। अगर उन्हें भगवान की संज्ञा दी जा रही है, तो जिस टीम के सदस्यों में एक भगवान हो, उस टीम के हिस्से में पराजय तो कभी आनी ही नहीं चाहिए। जब से वे क्रिकेट खेल रहे हैं, तब से छह विश्वकप का आयोजन हो चुका हैं,मगर छह विश्वकपों में से भारत सिर्फ एक बार ही विश्वविजेता बन सका है, आखिर क्यों। भगवान तो वह होता है जिसके अंदर ईश्वरीय शक्ति हो।क्या सचिन के अंदर ईश्वरी शक्ति है। इसके साथ-साथ हमें यह भी देखना चाहिए कि उन्होंने क्रिकेट के मैदान में जो प्रदर्शन किया है उसके बदले उन्हें करोड़ों रुपए मिलते रहे हैं। क्रिकेट की वजह से ही उन्हें बेशुमार दौलत और शोहरत मिली है। विभिन्न प्रोडक्ट्स का प्रचार टीवी चैनलों पर करते हैं, उसके बदले करोड़ों रुपए वसूलते हैं। इससे साफ जाहिर हो जाता है कि उनके बेहतरीन प्रदर्शन से सबसे अधिक उनको व्यक्तिगत लाभ हुआ है। ऐसे में व्यक्तिगत लाभ के लिए बड़े से बड़े काम करने वाले को क्या भगवान कहा जाना उचित है। इसमें कोई शक नहीं है कि उनके द्वारा बनाए गए रिकार्ड की चर्चा होती है और वे देश के अन्य तमाम खिलाड़ियों से बेहतर दिखाई पड़ते हैं तो हमें गर्व होता है कि इतने सारे रिकार्ड बनाने वाला खिलाड़ी हमारे देश का है। लेकिन इसके लिए उसे भगवान कैसे कहा जा सकता है। कितनी हैरानी की बात है कि देश को आजाद को कराने के लिए हंसते-हंसते फंासी का फंदा चूमने वाले और अंग्रेजों की गोलियों खाने वालों को तो देश के महानायक की संज्ञा नहीं दी जा रही है। देश से भ्रष्टचार मिटाने के लिए बिना किसी निजी स्वार्थ के संघर्ष करने वाले, समय-समय पर विभिन्न प्रकार का मोर्चा लेने वाले अन्ना हजारे के काम याद नहीं है। भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद, अशफाकउल्ला, मंगल पांडेय, वीर सावरकर, महारानी लक्ष्मीबाई, बाबा आम्टे और अन्ना हजारे जैसे लोग जिन्होंने खुद के फायदे के लिए कोई कार्य नहीं किया, इनकेा महानायक नहीं कहा जा रहा है। जो एक-एक क्लिप और एक-एक प्रदर्शन के बदले बकायदा सौदा करते हैं और करोड़ों रुपए वसूलते हैं, वे देश के महानायक है, आखिर इसका आधार क्या है।


नाज़िया गाजी

रविवार, 23 अक्तूबर 2011

इंसानियत के पैरोकार थे कैफी आज़मी


---- इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी ----

कैफी आज़मी का शुमार उन शायरों में होता है, जिन्होंने जिन्दगी के अंतिम पल तक इंसानियत का धर्म निभाया और और अस्पताल में लंबे समय तक बीमार पड़े रहने के बावजूद उसी अवस्था में शायरी में करते रहे। अंतिम समय में भी लोगों की जी खोलकर मदद करने वाले शख्स थे।उन्होंने न सिर्फ़ शायरी की बल्कि अपने शायर और अदीब होने का बखूबी फर्ज निभाया। उनकी पत्नी शौकत कैफी बताती हैं, ‘कैफी ने मौत से कभी हार नहीं मानी,निरंतर लड़ते रहे।अस्पताल की एक घटना याद आती है। घर से सवा चार बजेे अस्पताल पहुंची, कैफी बेहोष पड़े थे। उनके कमरे के दरवाजे पर डू ना डिस्टर्ब की तख्ती लगी हुई थी। पत्नी भी चार बजे से पहले उनके कमरे में प्रवेश नहीं कर सकती थी।क्या देख रही हूं कि एक छात्र कैफी के सिरहाने बैठा अपना दुखड़ा सुना रहा है और कैफी अर्धमूर्छित अवस्था में अपने सिर दर्द के बावजूद बड़े ध्यान से सुन रहे हैं। मैं देखते ही झल्ला गई। ‘ हद हो गई, डाक्टर ने आपको बात करने से भी मना किया है और आप उनसे बातें कर रहे हैं।’ फिर मैंने उस लड़के से कहा-मियां तुम ज़रा बाहर जाओ। इस पर वह कसमसाने लगा और बोला, मैं कैफी साहब को अपने हालात सुनाना चाहता हूं। मैंने प्यार से कहा-जरा आप बाहर जाइए मुझे आपसे कुछ कहना है। लड़का उठकर बाहर आने लगा तो कैफी ने अपनी क्षीण लड़खड़ाती आवाज में कहा, ‘ शौकत यह स्टूडेंट है,इसे कुछ मत कहना। हो सके तो इसकी जो ज़रूरत हो उसे पूरा कर देना।’ अच्छा-अच्छा कहकर बाहर निकल गई। पूछने पर पता चला कि वह अहमदाबाद का रहने वाला है। सौतेली मां के अत्याचार से घबराकर भाग आया है और कैफी से काम मांगने आया है।’ एक अन्य घटना का जिक्र करते हुए शौकत कैफी बताती हैं,‘ एक बार वह लान में बैठे लिख रहे थे।फूल,पौधों से उन्हें बड़ा प्रेम था। इसके लिए बहुत परिश्रम करते। दूर-दूर से फूलों के बीज मंगवाते। उस समय फूलों का मौसम आने वाला था। फूलों के बाग में मुहल्ले की एक मुर्गी अपने दस-बारह छोटे बच्चों सहित आ गयी और पंजों से गमलों के बीज कुरेद-कुरेद कर खाने लगी।बच्चे भी मां का साथ देने लगे। बस कैफी का एकदम गुस्सा आ गया और उन्हें भगाने के लिए एक छोटा सा पत्थर उनकी ओर फेंका। वह पत्थर मुर्गी के एक बच्चे का लग गया और उसने वहीं तड़प-तड़प दम तोड़ दिया। बस फिर कैफी से रहा न गया, जल्दी से अपनी जगह से उठ खड़े हुए। मुर्गी के बच्चे को पानी पिलाने और किसी प्रकार से उसे जीवित करने की कोशिश करने लगे, मगर जब वह बच न सका तो एक दम कलमबंद करके रख दिया और दो दिन तक काम ही न कर सके। मुझसे कहने लगे, ‘मैंने बहुत ज़्यादती की। उन्हें आवाज़ से भी भगा सकता था। पत्थर फेंकने की क्या ज़रूरत थी। अब मुझसे काम नहीं हो पा रहा है। जब बैठता हूं, वह मुर्गी का बच्चा नज़रों के सामने घूमने लग जाता है।’ मैंने हंसकर बिल्कुल बच्चों की भांति समझाया, ‘भई यह तो अकस्मात ऐसा हो गया फिर तुम मुर्गी खाते भी तो हो। अगर अब नहीं मरता तो बड़ा होकर काट दिया जाता। तुम इसके बारे में मत सोचा।’ शौकत कैफी एक और घटना को याद करती हैं, ‘ एक दिन हमारे घर में चोरी हो गयी। तमाम बेड़ कवर, चादरें, कंबल चोरी हो गए। मुझे मालूम था कि चोर कौन है। एक चोर माली हमारे घर किसी प्रकार आ गया था। जब हमारे घर में निरंतर चोरियां होने लगीं और मुझे पता चला कि यह सारा काम उसी माली का है तो मैंने उसे निकाल दिया और एक दिन जब हम घर से बाहर गए हुए थे और घर खुला हुआ था तो मौका पाकर वह माली फिर आया और घर के तमाम कंबल और चादरें उठा ले गया। जब मैंने कैफी से कहा कि तुम पुलिस में सूचना दो, तो कहने लगे, ‘देखो शौकत बारिश होने वाली है-उस गरीब को भी तो चादरें और कंबल की ज़रूरत होगी। उसके बच्चे कहां जाएंगे। तुम तो और खरीद सकती हो लेकिन वह नहीं।’ मैंने अपना सिर पीट लिया और कोेई जवाब नहीं दे सकी।’ अतहर हुसैनी रिजवी उर्फ कैफी आजमी का जन्म 17 जनवरी 1919 का आजमगढ़ जिले के मिजवां गांव में हुआ था। घर में ही शेरी-शायरी का अच्छा-खासा माहौल था, उनके बड़े भाई और पिता भी शायरी के काफी लगाव रखते थे। खुद उनके घर में भी शेरी-नशिस्त का दौर चलाा करता था। कैफी ने मात्र ग्यारह साल की उम्र में ही शेर कहना शुरू कर दिया था। बहुत मशहूर वाकया है, जब वे मात्र ग्यारह वर्ष के थे,उनके गांव में ही तरही मुशायरा का आयोजन किया गया था। उस मुशायरे का तरह था ‘ इतना हंसों कि आंख से आंसू निकल पड़े’। उन्होंने कहा-
इतना तो ज़िदगी में किसी की खलल पड़े,
हंसने से हो सुकून, न रोने से कल पड़े।

इस मुशायरे में उन्हें काफी वाहवाही मिली। उनके पिता दंग रह गए। उन्होंने तुरंत एक पारकर पेन, एक शेरवानी के साथ उनका उपनाम ’कैफी’। तब से वे कैफी आजमी हो गए। उनकी तीन प्रमुख कृतियां प्रकाशित हुई हैं। आखिरी शब, झंकार और आजाद सज्दे। उन्होंने तमाम फिल्मों में गीत लिखे। जिसके लिए उन्हें नेशनल पुरस्कार के के अलावा फिल्मफेयर अवार्ड भी मिला। इस कलम के सिपाही ने 10 मई 2002 को इस दुनिया को अलविदा कह दिया।

(हिन्दी दैनिक जनवाणी में 09 अक्तूबर 2011 को प्रकाशित )

सोमवार, 10 अक्तूबर 2011

अज़ीज़ इलाहाबादी: बेहतरीन शायर और जिंदादिल इनसान



इलाहाबाद हमेशा से अपनी गंगा-जमुनी तहज़ीब,संस्कृति और अपनी शेरी व अदबी फ़िज़ा के लिए मशहूर रहा है.शायरी इलाहाबाद के दिल धडकन और रूह की तरह बस्ती है. पुराने ज़माने से लेकर मौजूदा दौर तक बहुत से शायरों ने अपनी शायरी के ज़रिये इलाहाबाद की फ़िज़ा को खुशनुमा बनाये रखा और अपनी गज़लों व नज्मों के ज़रिये शायरी को बुलंदी बख्शी लेकिन बहुत कम शायर ऐसे हैं जिन्होंने अपनी शायरी के गुलदस्ते में ज़िंदगी के तमाम रंगों के फूलों को समेटा और महकाया. इस लिहाज़ से अगर मौजूदा दौर के शायरों का ज़ायज़ा लिया जाये तो जो नाम मेरे जेहन में सबसे पहले आता है वह हैं अज़ीज़ इलाहाबादी, जिनका पिछले 18 सितम्बर 2011 को इन्तेकाल हो गया.अज़ीज़ इलाहाबादी की पैदाइश 1935 में हुई थी. उनके वालिद का नाम जनाब अब्दुल हमीद खान है. अज़ीज़ साहब की चार किताबें छप चुकीं हैं. इन किताबों के नाम- गज़ल का सुहाग, गांव से शहर तक, गज़ल संसार और नुरुल हुदा है.
अज़ीज़ इलाहाबादी ने मुख्तलिफ अस्नाफे सुखन को अपनी शायरी के दायरे में लिया है.उनका शेरी सरमाया गज़लों,नज्मों,हम्द,नात,सलाम,मनकबत,कतआत, गीतों, दोहों वगैरह से मालामत है, लेकिन यहाँ पर मुझे उनकी गज़लों का जायजा लेना मकसूद है. गज़ल शायरी की एक हरदिल अज़ीज़ और मकबूलतरीन सिंफ है. जिसने यह साबित करके अपने मुखालफीन के ज़बान बंद कर दी कि उसका दायरा सिर्फ हुस्न-इश्क की बातें करने तक महदूद नहीं बल्कि ज़िंदगी के हर पहलू और दुनिया के हर मज़मून को समेट लेने की वुसअत और सलाहियत इसके अंदर मौज़ूद है. इसकी ताज़ा मिसाल अज़ीज़ इलाहाबादी की ग़ज़लें हैं, जो महबूब की जुल्फों से अटखेलियां करते, लबो रुखसार की बातें करते हुए, मरमरीं जिस्म की मदहोश कर देने वाली खुशबू से मुअत्तर होकर जामो सुबू के नग्में गाते रिन्दों के दरमयान अपनी मौजूदगी दर्ज करात हुए शहर की गलियों और सड़कों का गहराई से जायजा लेते हुए गांव के तरफ मुड जाती हैं जहाँ वह ताज़ा हवा और पुरसुकून माहौल में सांस लेती है और फिर खेतों-खलिहानों के दरमियान से गुजरकर, पनघट पर अपनी मौजूदगी का अहसाह दिलाते हुए गांव की गोरी पायल और गागर तक पहुँच जाती है. इस तरह हम देखते हैं कि अज़ीज़ इलाहाबादी के ग़ज़लें गांव से लेकर शहर तक के हुस्नो-जमाल का दीदार कराने के साथ-साथ ज़िंदगी के मौजूदा मसायल की ऐसी नंगी तस्वीर दिखाती जिसे हम देखते हुए भी कभी-कभी नहीं देख पाते.
अज़ीज़ इलाहाबादी की गज़लगोयी के बारे में पदमश्री बेकल उत्साही अपनी राय कुछ इस तरह ज़ाहिर करते हैं-'यह काफी ज़हीन उम्दा और नोकपलक के मालिक हैं. रवायत के साथ जिद्दत की डगर अपना लेते हैं और साफ-सुथरे अशआर निकालने का ज़ज्बा रखते है. बहरहाल लफ़्ज़ों के परखने का हुनर और गज़ल कहने का फन जानते हैं.'
अज़ीज़ इलाहाबादी का रिश्ता गांव और शहर दोनों से रहा है, वह खुद लिखते हैं,'मेरी ज़िंदगी दो हिस्सों में तकसीम है, एक शहर से और दूसरी गांव से मुताल्लिक'. इस तरह उन्होंने गांव और शहर दोनों की ज़िंदगी और रहन-सहन को करीब से देखा और क़ुबूल किया. उनकी गज़लों में गांव और शहर दोनों की सच्ची तस्वीर नज़र आती है. शहर की नुमाइशी ज़िंदगी और इंसानी खुदगर्जी को वह पसंद नहीं करते. उनकी ग़ज़लें शहर की कशमकश भरी ज़िंदगी, तरक्की के नाम पर छलावा, मुहब्बत ने नाम पर फरेब,उलझन, परेशानी की तल्ख़ हकीकात पेश करती है-
दुश्मनी, दोस्ती की शक्ल में है,
उसकी जानिब से घात बाक़ी है,
इस अहदे तरक्की में, तहज़ीब-ओ-तमद्दुन के
परदे पे नए चेहरे दिखलाये गए आखिर
दौरे हाज़िर में सब ही फ़रिश्ते मिले
कोई मिलता नहीं आदमी की तरह
शहर के मुक़ाबले गांव की ज़िंदगी को वह ज़्यादा पसंद करते हैं, जहाँ पुरसुकून माहौल है, खेतों की हरियाली, खलिहानों का सुहाना मंज़र है, सादगी है और सबसे बढ़कर इंसानियत, मुहब्बत और अपनापन है. हालंकि अज़ीज़ साहब की गज़लों में मौजूदा गांव की तस्वीर नहीं बनती, लेकिन वह माजी के गांव की भरपूर तर्जुमानी करती हैं.
कड़वा-कड़वा शहर का लहजा
गांव में अपनापन बाक़ी है,
पेड़ के फल नए मौसम में रसीले होंगे
फूल सरसों के तेरे नाम से पीले होंगे
रौनकें शहर की वह छोड़कर क्यों आएगा
गांव के रस्ते बरसात में गीले होंगे
फागुन आया,सरसों फूली,होली नाचे खेतों में
साजन गोरी को मारे,रंग भरी पिचकारी भी.
डॉ. अहमद लारी अज़ीज़ इलाहाबादी की गांव की शायरी के बारे में लिखते हैं,'मेरे ख्याल से इनका सबसे अहम कारनामा यह है कि इन्होंने गज़ल का रिश्ता गांव की ज़िंदगी से जोड़ा है और इसमें गांव की गोरी के रूप में अनूप,पनघट,सखियों की छेड़छाड़,खेतों की हरियाली,गेंहूँ की बालियों की सुनहरी रंगत,गांव के लोगों की फितरी सादगी और मासूमियत और उनके दुःख-सुख को इन्तेहाई दिलकश अंदाज़ में पेश किया है.' अज़ीज़ साहब की शायरी मौजूदा दौर की शायरी है. उन्होंने समाज के हर तबके की ज़िंदगी का बारीकी से जायजा लिया है, चाहे वह ज़मीदारों,ठेकेदारों और अमीरों की सहूलियत से भरी ज़िंदगी हो या गरीबों की भूख और लाचारी से भरा जीवन, कोई भी पहलू अज़ीज़ साहब से छुटा नहीं है-
ज़मीन बेचकर अपनी वह मज़बूरी में रहते हैं
ज़मीदारों के बेटे हैं जो कालोनी में रहते हैं
तडपती भूख सुलगती है प्यास की शिद्दत
किसी गरीब से पूछो कि ज़िंदगी क्या है

अज़ीज़ इलाहाबादी का कमाल यह है की वह सिर्फ अपने महबूब के हुस्न या लबो रुखसार को ही नहीं देखते बल्कि गांव से लेकर शहर तक की इंसानी ज़िंदगी के तमाम पहलुओं पर गहरी निगाह रखते हैं. अहदे हाज़िर में मशीनी इस्तेमाल से जहाँ तरक्की की राहें आसान हुईं हैं और तरह-तरह की सहूलियात और फ़वायद हासिल हुए हैं वहीँ इसमें कई तरह के नुक्सानात भी सामने आयए हैं जिनका ज़िक्र अज़ीज़ साहब की गज़लों में मिलता है-
भूख प्यास और बढ़ गई
हाथ जब मशीन हो गए
अज़ीज़ साहब ने अपनी गज़लों में मौजूदा वक्त में दम तोड़ती हुयी इंसानियत, खत्म होती मुहब्बत,झूठी हमदर्दी और बिखरी हुई पुरानी कद्रों को बड़े ही पुरअसर अंदाज़ में पेश किया है-
यह अहदे सफीराने तरक्की की थकन है
या सिलसिला-ए-दैर-ओ-हरम टूट रहे हैं
लिबास पहने है हर जिस्म शख्सियत का मगर
मिला न कोई भी इंसानियत के पैकर में

अपनी शायरी के ज़रिये वह इनसानों को अपनी बुनियादी कदरों को बरकरार रखने और ज़िंदगी की हकीकत को पहचानने पर जोर देते हैं. उनके मुताबिक इनसानियत से दूर रहकर दुनियावी तरक्की से कोई फायदा नहीं होने वाला. इस झूठी तरक्की और वक्ती चकाचौंध के पसेपर्दा अँधेरे के सिवा कुछ भी नहीं-
तुम्हारे पास उजाला नहीं अँधेरा है
किसी को रौशनी-ए-अफताब क्या दोगे,
अज़ीज़ अहले हुनर क़ैद हैं अँधेरे में
यह दौर, दौर-ए-तबाही है रौशनी क्या है

इस तरह अज़ीज़ साहब की शायरी माजी,हाल और मुस्तकबिल ( भूत,वर्तमान तथा भविष्य) की झलक नज़र आती है. उन्होंने जहाँ-जहाँ मौजूदा दौर के तमाम मसायल को अपनी गज़लों में शामिल किया वहीँ वह शानदार माजी की कद्रों को भी अपनी गज़लों के ज़रिय पेश किया है.डॉ. सय्यद शमीम गौहर उनकी जमालियाती शायरी के बारे में लिखते हैं, 'हुस्ने जानां की तशरीह, जुल्फों की तफसीर,सीनये सोजाँ की रूदाद,ज़ख्मे जिगर और चश्मेतर की तर्जुमानी से अज़ीज़ इलाहाबादी का तर्जे सुखन चमकता-दमकता नज़र आता है. ज़ायकए हुस्न और हुस्नेजन की लतीफ़ सरगोशियाँ इन्हें हमेशा गुदगुदाती रहीं, दर्दो कर्ब और यादों की खराशों से वह कभी घबराते नहीं और न ही हसरतो यास के दीवानापन से परेशान होते हैं बल्कि इन नेमतों को अज़ीज़ जानते सीने सेलगाते हुए ज़ज्बये तख्य्युलात का इज़हार करते हैं.'
ज़बान के ऐतबार से अज़ीज़ इलाहाबादी की ग़ज़लें आमफहम हैं. उन्होंने गांव और शहर की रोज़मर्रा की ज़िंदगी में बोली जाने वाली आम आदमी की ज़बान को गज़लों में इस्तेमाल किया है जिसमें हिंदी और उर्दू के सादे और आसान अलफ़ाज़ का इस्तेमाल करते हुए उन्होंने निहायत सादगी और कामयाबी के साथ अपनी बात कही है. उनकी गज़लों में ऐसे अल्फाज़ भी कसरत के साथ नज़र आते हैं जो गज़ल के मिजाज़ के ऐतबार से मुनासिब नहीं रखते और आमतौर पर शह लतीफ़ की ज़हनी सतह पर गिरन गुजारते हैं, जैसे- अंगनाई,पथरन,कथरी, हटीले,टाट,छप्पर,चितवन,चौकड़ी,पैवंद,नवीन,कड़ी,छैल-छबीली,उपटन,गागर,कटोरा आदि, लेकिन अज़ीज़ साहब जो गज़ल की नजाकत और लताफत के साथ उसके फन से भी बखूबी वाकिफ हैं, वह लफ़्ज़ों को परखने और उसके इस्तेमाल करने का हुनर भी जानते हैं और यही हुनर उनको मकबूल व मुनफरिद करता है.गरजकि अज़ीज़ इलाहाबादी कि गज़लिया शायरी ज़मीन से जुडी खालिस हिन्दुस्तानी शायरी है जो न सिर्फ हुस्नो जमालियात और कैफो निशात की तर्जुमान है बल्कि एक ऐसा आईना भी है जिसमें इंसानी समाज और दुनियावी रिवाज़ की सच्ची तस्वीर नजर आती है, एक ऐसी तस्वीर जो क़ारी के ख्वाबीदा जेहन को झिंझोड कर कुछ देर के लिए बदार करने की कुवत रखती है.
सायमा नदीम
3/6, अटाला,तुलसी कोलोनी, इलाहबाद, मोबाईल: 9336273768

बुधवार, 5 अक्तूबर 2011

किश्वर फातिमा: हिम्मत से जिंदगी को बनाया आसान

---------- इम्तियाज़ अहमद गाज़ी ---------
किश्वर फातिमा के ससुराल में रिश्तेदारों ने धोखे से घर और खेत हड़प लिया, मजबूरन पति और दो बच्चों के साथ मायके चली आयी। कुछ ही दिनों बाद पिता का देहांत हो गया और मायकेवालों ने घर से निकाल दिया. पति कमाने के लिए मुंबई गया तो पत्नी और बच्चों की तरफ मुड़कर नहीं देखा. लिश्वर ने किराए पर एक कमरा ले लिया. किराया देने के लिए पैसा नहीं था, लिहाज़ा घरेलू सामान बेचकर किराया चुकाती रही और खुद बच्चों संग भूखे सोती, कभी-कभी पडोसी कुछ खाने को दे देते. एक दिन अचानक किसी ने उसे अखबार अखबार बेचने की सलाह दी. पहले उसने अपने बेटे को अखबार बेचने के लिए भेजा. लेकिन बच्चे की सुरक्षा को लेकर डरती थी, लिहाजा अगले दिन से खुद अखबार बेचना शुरू कर दिया. धीरे-धीरे वह नियमित हाकर हो गई. हिम्मत से उसने अपनी और अपने बच्चों की जिंदगी को संभाल लिया.
किश्वर फातिमा इलाहाबाद के नखास कोहना की रहने वाली है.एक भाई और दो बहने थीं. पिता ने उसकी शादी बिहार के बक्सर जिले के सफीपुर गांव में कर दी. पति पढ़ा-लिखा नहीं था. इसका लाभ उठाते पति के बहनोई ने धोखे से घर और खेत अपने नाम करके उन्हें बाहर निकाल दिया. किस्मत की ममरी किश्वर अपने पति और दो बच्चों संग पिता के घर मायके चली आयी. पतों को कभी फलों का ठेला लगवाती तो कभी सब्जियों का.किसी तरह पेट पलता, पिता और भाई का सहयोग भी मिलता.एक दिन पिता का इन्तिकाल हो गया. इसके बाद घर का माहौल बिगड गया तो पति को कमाने के लिए मुंबई भेल दिया.इधर भाई ने घर से निकाल दिया. किश्वर पर दुबारा मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ा.उसने करेली मोहल्ले में किराए का मकान ले लिया. आमदनी का कोई जरिया नहीं था लिहाजा घरेलू सामान बेचकर मकान का किराया देती और खुद बच्चों संग भूखे संग सोती, कभी-कभी पडोसी कुछ खाने को दे देते.उधर पति मुंबई कमाने के लिए गया तो पीछे मुड़कर नहीं देखा. बाद में पता चला की उसने वहीँ दूसरी शादी कर ली है.
एक दिन एखलाक नामक आदमी ने किश्वर से कहा की अपने बारह साल के बेटे को मेरे साथ भेज दो, उसे अखबार दिला देता हूँ, बेच लेगा तो कुछ पैसे मिल जायेंगे। किश्वर ने अपने बेटे तो भेज दिया।एक दैनिक अखबार बेचने के लिए उसका बेटा निकल पड़ा। १२ साल के मासूम शाम को घर लौटा तो उसके हाथ में दस रुपए थे, जो बेचे गए अखबार की आमदनी थी.दस रुपए का छोला चावल खरीदकर तीनों ने खाया और और काफी खुश हुए. अगले दिन भी बेटा अखबार बेचने के लिए निकल पड़ा. इधर किश्वर का जी घबराने लगा, कहीं मोटर गाड़ी के नीचे न आ जाए, कोई मारपीट न दे. घबराई किश्वर निकल पड़ी बेटे को खोजने. दिनभर खोजती रही और अल्लाह से दुआ करती की मेरे बेटे को सही सलामत रखना.खोजते-खोजते शाम को घर लौटी तो उसका बेटा घर आ चूका था और आज भी दस रुपए कमा लाया था.फिर तीनों ने मिलकर खाना खाया.अब किश्वर ने फैसला किया कि वह अपने बेटे कोअखबार बेचने के लिए नहीं भेजेगी.अगले दिन उसने खुद अखबार बेचने का फैसला किया. इलाहाबाद की गली कुचों से ज्यादा वाकिफ नहीं थी. सो मोहल्ले के ही एक बुज़ुर्ग से उसने गुजारिश की कि उसे रास्ता देखा दें. ताकि वह घूमकर अखबार बेच सके. हसन ज़मील नामक उस बुज़ुर्ग ने सायकिल पर बिठाकर किश्वर को रास्ता दिखा दिया. किश्वर ने पहले दिन हिम्मत करके 30 अखबार बेच दिया। दूसरे दिन अखबारों की बढ़ाकर 70 कर लिया। दिनभर अखबार बेचने के बाद उसने बेचे जाने वाले अख़बारों की संख्या 100 कर लिया।फिर 100 से 150 और 150 से बेचे जाने वाले अख़बारों की संख्या 250 हो गई. आज वह सांध्य अखबारों के अलावा सुबह का अखबार भी बेचती है.
कहते हैं की जब दिन खराब होता है तो समाज भी साथ नहीं देता और जब दिन बहुरने लगता है तो समाज को अखरने लगता है. किश्वर के साथ भी ऐसा ही हुआ. हसन जमील कभी-कभी किश्वर के बच्चों के देखभाल करता था, ख़ासतौर पर जब वह अखबार बेचने के लिए निकलती थी.पड़ोसियों को यह बहुत नागवार गुज़रा.किश्वर जब भूखे पेट सोती और अपने बच्चों के लिए भोजन का इंतज़ाम नहीं कर पाती तब किसी पडोसी को दिखाई न देता. हसन जमील का सहयोग करना अखरने लगा. उसे लेकर तरह-तरह की बातें की जानी लगीं. पडोसी उससे लड़ाई करने पर उतारू हो जाते.परेशान होकर हसन जमील ने के सामने उसने निकाह का प्रस्ताव रख दिया.और फिर 55 साल के हसन जमील से निकाह कर लिया. आज किश्व्वर की आमदनी का जरिया अखबार ही है. रोजाना सांध्य दैनिक और सुबह के अखबार बेचती है और बच्चों का पेट पालती है. बचे जो अब 15 और 12 साल के हैं, उन्हें पढ़ा तो नहीं सकी लेकिन उन दोनों में एक को वेल्डिंग का काम सीखने लगा है तो दूसरा मोटर मैकेनिक का. किश्वर अपनी हिम्मत से अपनी मुसीबत भरी जिंदगी को आसान बना लिया है.

सोमवार, 3 अक्तूबर 2011

लोग कोई न कोई कमी निकाल ही लेते हैं-शहरयार

साहित्य की दुनिया में प्रोफेसर शहरयार का नाम किसी परिचय का मोहताज़ नहीं है,बल्कि उनका नाम बड़ी इज्ज़त से लिया जाता है.उन्होंने अबतक जो इबारत लिखा है उसे इस युग का ख़ास हासिल है.उमराव जान जैसी फिल्म में लिखे उनके गीत मील की पत्थर की तरह हैं.अबतक इस्मे आज़म,सातवां दर,हिज्र के मौसम,ख्वाब का दर बंद है,नींद की किरचें और मेरे हिस्से की ज़मीन नामक काव्य संग्रह उर्दू में प्रकाशित हो चुके हैं. इसके अलावा धूप की दीवार,मेरे हिस्से की ज़मीन,ख्वाब का दर बंद है और कहीं कुछ कम है नामक किताबे हिंदी में भी छपी हैं.18 सितंबर 2011 को हिंदी फिल्मों के महानायक कहे जाने वाले अमिताभ बच्चन के हाथों उन्हें ज्ञानपीठ पुरस्कार से नवाजा गया. उर्दू साहित्यकारों में यह पुरस्कार पाने वाले वे चौथे साहित्यकार हैं, उनसे पहले कुर्तुलएन हैदर,फ़िराक गोरखपुरी और सरदार अली जाफरी को यह एवार्ड मिला है.शहरयार को ज्ञानपीठ से पहले बहादुर शाह ज़फर,उर्दू अकादमी पुरस्कार,ग़ालिब एवार्ड और राजभाषा पुरस्कार मिल चूका है.ज्ञानपीठ पुरस्कार अमिताभ बच्चन के हाथों से दिए जाने को लेकर काफी चर्चा रही, तमाम साहित्यकारों ने इसकी आलोचना भी की.इम्तियाज़ अहमद गाज़ी ने उनसे बातचीत की-


सवाल:एक साहित्यकार के लिए एवार्ड की क्या अहमियत है?
जवाब:वैसे तो कोई ख़ास अहमियत नहीं है,लेकिन पुरस्कार मिलने के बाद जिम्मेदारी और बढ़ जाती है.आदमी जब पूरा जीवन लेखन कार्य में व्यतीत कर देता है और उसके बदले कोई पुरस्कार मिलता है तो अच्छा ही लगता है. लेकिन एवार्ड पाने के लिए ही लेखन नहीं किया जाता, न ही यह लेखन का मकसद होना चाहिए.
सवाल:ज्ञानपीठ पुरस्कार अमिताभ बच्चन के हाथों दिए जाने को लेकर काफी आलोचना हो रही है.अधिकतर साहित्यकारों का कहना है कि यह पुरस्कार किसी साहित्यकार के हाथों से मिलना चाहिए था?
जवाब:अमिताभ बच्चन के हाथों पुरस्कार दिए जाने को मैं गलत नहीं मानता. फिल्म इंडस्ट्री के महानायक कहे जाते हैं अमिताभ बच्चन,उनके हाथों पुरस्कार लेने में मुझे कोई असहजता महसूस नहीं हुई. लोगों का क्या है, लोग हर काम में कोई न कोई कमी निकाल ही लेते हैं.और पुरस्कार देने का फैसला पुरस्कार देने वाली संस्था को करना होता है, इसमें किसी को एतराज़ नहीं होना चाहिए.


सवाल: मौजूदा दौर की फिल्मों को देख कर कैसा लगता है ?

जवाब: फ़िल्में बहुत खतरनाक दौर से गुजर रहीं हैं। ऐसी चीज़ें दिखाई जा रही हैं, जिनका असलियत से कोई वास्ता नहीं होता, लेकिन देखने में अच्छा लगता है। आदमी तीन घंटे के लिए असल जिंदगी भूल जाता. फिल्म खत्म हो जाने के बाद पता चलता है कि असल जिंदगी में क्या होता है। आज कि फिल्मों में आम आदमी गायब हो गया है। हर तरफ दिखावटी चमक-धमक ही प्रदर्शित कि जा रही है

सवाल: उर्दू कि मौजूदा सूरतेहाल से आप कितने संतुष्ट हैं?

जवाब: बिलकुल। पूरी तरह तरह संतुष्ट हूँ। उर्दू का भविष्य अच्छा है। यह ज़बान हिन्दुस्तान की ज़बान है।

सवाल: उर्दू की तरक्की के लिए कुछ लोग इसकी लिपि को देवनागरी लिपि बदलने की बात करते हैं?

जवाब: उर्दू की लिपि बदलने की कोई वजह नहीं है.मेरा मानना है कि उर्दू अपनी स्क्रिप्त के साथ ही ज़िंदा रहेगी, क्योंकि हर ज़बान की अपनी एक साउंड होती होती है जो उसी की स्क्रिप्त में मुमकिन है और वैसे भी उर्दू स्क्रिप्त एक आर्ट है। देवनागरी स्क्रिप्त साइंटिफिक होने के बावजूद उर्दू की कई साउंड्स को व्यक्त नहीं कर पाती है।

सवाल: लेकिन उर्दू स्क्रिप्त बहुत मुश्किल है?
जवाब: मुश्किल होने का मतलब बदल देना नहीं है। वैसे भी यह गलत धारणा है कि उर्दू स्क्रिप्त मुश्किल स्क्रिप्त है। आप अंग्रेजी सीख सकते हैं, लोग जापानी सीख रहे हैं.... दरअसल गैर उद्रू भाषियों को उर्दू सीखने में लाभ नज़र नहीं आ रहा है.....इसके भी कई वजह हैं।उर्दू स्क्रिप्त या कहें उर्दू ज़बान अभी भारत में रोज़गार कि भाषा नहीं बन पा रही है। दूसरे, जहाँ तक उर्दू अदब खासकर शायरी पढ़ने की समस्या है तो वो देवनागरी में उपलब्ध होने लगी है।
सवाल: न्यूज़ चैनलों के बढते प्रभाव को किस रूप में परिभाषित करना चाहेगें?

जवाब: दोनों पहलू हैं।पोजिटिव भी, और निगेटिव भी। कई बार मीडिया द्वारा बहुत सी गलत चीज़ें फ़ैल जाती है, यकीन की हदतक, जो समाज के लिए बहुत खतरनाक साबित होतीं हैं।कहा जाता है कि यही पब्लिक की डिमांड है। मगर ऐसा बिलकुल नहीं है। मीडिया की नज़र में पब्लिक है ही कहाँ, उसके ऊपर तो चीज़ें थोपी जा रही हैं। हाँ, कहीं-कहीं मीडिया का काम बेहद सराहनीय होता है। जैसे कि प्रिंस का गड्ढे में गिरना और मीडिया द्वारा लगातार दिखाए जाने के कारण मुस्तैदी से उसे बाहर निकाल लिया जाना।

सवाल: उर्दू लिटरेचर की तमाम चीज़ें अब हिंदी में अनूदित और प्रकाशित होने लगीं हैं, कैसा लगता है?
जवाब: इसका उर्दू पर अच्छा ही असर पड़ रहा है। उर्दू फ़ैल रही है।हिंदी पढ़ने वालों की तादाद अधिक है, वे उर्दू लिटरेचर की चीज़ें पढ़ना पसंद कर रहे हैं, इसलिए ऐसा है। यह उर्दू लिटरेचर के लिए पाजिटिव संकेत है।
सवाल: फ़िल्मी गीतकारों की शिकायत है कि उन्हें साहित्यकार नहीं माना जाता?
जवाब: जो साहित्यिक रचनाएं करते हैं उन्हें माना भी गया है। साहित्य कि अपनी सीमाएं हैं। जिन फ़िल्मी गीतों की लोग वकालत कर रहे हैंवास्तव में वे गीत हैं ही नहीं। इन गीतों से मयूजिक हटा दीजिए तो कुछ नहीं बचेगा। साहित्य वही है जो कागज़ पर सके।

सवाल: कुछ लोगों का कहना है कि हिंदी संस्थान और उर्दू एकेडमी अलग-अलग नहीं होना चाहिए। दोनों का काम एक जगह एक साथ किया जाना चाहिए?
जवाब: दोनों ज़बानों कि अलग-अलग संस्थाएं होनी ही चाहिए। एकता अलग चीज़ है, एक बनाना अलग चीज़ है। सब चीज़ें एक जैसी नहीं हो सकतीं। ये न कभी हुआ है न कभी होगा। हाँ, इन संस्थाओं में इमानदारी से काम किये जाने की ज़रूरत महसूस होती है।

सवाल : शेर किस तरह कहा जाता है?
जवाब: शेर कहने के लिए कोई न कोई टारगेट होता है।कोई न कोई मकसद होता है कि मैं यहाँ अपनी चीज़ पहुंचाना चाहता हूँ। जब बिना मकसद के सिर्फ शेर कहने के लिए शेर कहा जाता है तो उसमें वज़न नहीं होता, साथी शेर होकर रह जाता है। टारगेट का होना बेहद ज़रुरी है।


सवाल:समाज में बुराई भ्रष्टाचार बढ़ रहा है। इसकी क्या वजह मानते हैं?

जवाब: अच्छाई को बहुत लोगों की ज़रूरत होती है।अकेला आदमी कुछ नहीं कर सकता। आदमी अपना आकलन करता रहे कि दिनभर में क्या अच्छा किया, तो बात बन सकती है।पहले लोग वाच करते थे कि मेरा बच्चा कहाँ से कितना कमा रहा है। मगर अब यह नहीं देखा जाता कि पैसा कहाँ से आ रहा है। बस चाहता है कि मेरा बच्चा पैसा कमा कर लाये। यही बुराई कि जड़ है।

सवाल:यह बार-बार शोर मचाया जा रहा है कि नए लोग अच्छा नहीं लिख रहे हैं?
जवाब:यह बात गलत है। नए लोग भी अच्छा लिख रहे हैं। पहले भी अच्छा-खराब दोनों तरह के लिखने वाले थे, आज वही हालात हैं। बहुत से नए लोग बहुत अच्छा लिख रहे हैं। हाँ, खराब लिखने वालो की तादाद भी कम नहीं है। एक चीज़ ज़रूर खलती है कि नए लोग पढ़ते नहीं हैं। चार गज़ल लिख लिया और हो गए देश के सबसे बड़े शायर। नए लोग पहले खूब मेहनत करें, फल कि इच्छा न करें। दूसरे शायरों लेखकों को खूब पढ़ें तभी पुख्ता शेर होगा।


सवाल:किसी नई फिल्म के लिए गीत लिख रहे हैं?

जवाब:हाँ, मुज़फ्फर एक फिल्म बना रहे हैं,जिसका नाम जहांगीर-नूरजहाँ है, इस फिल्म के लिए गीत लिख रहा हूँ।

(02 अक्टूबर 2011 को हिंदी दैनिक जनवाणी में प्रकाशित)